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________________ सप्तमः सर्गः। 366 रहता है तो वह उसके भयसे अधिक कांपता रहता है / दमयन्तीका योनि पीपल के पत्तेसे भी सुन्दरतम होनेसे सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुम लक्षणसे युक्त है ] ! 90 // भ्रश्चित्ररेखा च तिलोत्तमाझ्या नासा च रम्भा च यदुरुसृष्टिः / दृष्टा ततः पूरयतायमेकाऽनेकाप्सरःप्रेक्षणकौतुकानि || 91 // भूरिति / यत् यस्मात् अस्या भैग्या श्रृश्चित्ररेखा अद्भुतविन्यासा अप्सराश्व, नासा नासिका तिलात् तिलकुसुमात् उत्तमा तिलोसमा नामाप्सराश्च, तथा ऊरु. सृष्टिः रम्भा कदली अप्सराश्च / 'रम्भाकदल्यप्सरसोः' इति विश्वः / ततः तस्मात् इयमेकैव दृष्टा सती अनेकासामप्सरसां प्रेक्षणारकौतुकानि पूरयति ताशान् मानसोल्लासान् जनयतीत्यर्थः। अत्रैकस्यानेकात्मकताविरोधाभासनात् विरोधाभासालङ्कारः, स च श्लेषमूल इति सङ्करः // 9 // जिस कारण इस दमयन्तीकी भ्र चित्र रेखावाली ( पक्षा-चित्रलेखा नामकी अप्सरा) है, नाक तिलपुष्पसे उत्तम ( पक्षा०-तिलोत्तमा नामकी अप्सरा) है, और ऊरुरूप यष्टि केलेके स्तम्भके समान या तद्रूप ( पक्षा०-रम्मा नामकी अप्सरा )है; उस कारण अकेली यह दमयन्ती अनेक अप्सराओंके देखनेके कुतूहलको पूरा करती है। [इस दमयन्तीकी भ्र , नाक तथा ऊरुके देखने से क्रमशः चित्रलेखा, तिलोत्तमा और रम्भा नामक अप्सराओं को देखनेका आनन्द मिलता है, यही कारण है कि इन्द्र उन अप्सराओंको छोड़कर इस दमयन्तीको प्राप्त करनेकी इच्छा कर रहे है / लोकमें भी देखा जाता हैं कि पृथक्-पृथक् स्थित भनेक वस्तुओंको छोड़कर एकत्रित उन सब वस्तुओंको प्राप्त करना चाहता है। ] // 91 // रम्मापि कि चिह्नयात प्रकाण्ड न चात्मनः स्वेन न चैतदरू। स्वस्यैव येनोपरि सा दधाना पत्राणि जागर्त्यनयोध्रमेण / / 12 // रम्भेति / रम्भा कदल्यपि आत्मनः प्रकाण्डंस्कन्धं स्वेन स्वात्मना स्वयमित्यर्थः / प्रकृत्यादिभ्य उपसङ्घयानात् तृतीया। न चिह्वयति किमेतस्या ऊरू च न चिह्नयति किं मिथो व्यत्यासपरिहाराय द्वयोरन्यतरस्यापि चिह्नं न चकार किमित्युत्प्रेक्षा। कुतः, येन कारणेन सा रम्भा अनयोरूवोंभ्रमेणोरूनान्त्येत्यर्थः / स्वस्येव स्वकीयस्कन्धस्यव उपरि पत्राणि दलानि प्रतिपक्षोपरिधेयानि साक्षरपत्राणि च दधाना जागर्ति / अत्र सौन्दर्य सङ्कर्षिणी रम्भापि स्वस्मिन्नेव उरुभ्रान्त्या पत्रावलम्बनकरणात् भ्रान्तिमदलङ्कारः / तन्मूला चोक्तोत्प्रेक्षेति तयोरङ्गाङ्गिभावेन सङ्करः // 92 // ___ कदली ( केलेका वृक्ष ) अपने स्तम्बको स्वयं चिह्नित नहीं करती है क्या ? तथा इस दमयन्तीके ऊरुद्वयको चिह्नित नहीं करती है क्या ? ( अपने इस दमयन्तीके ऊरुद्वयको परस्परमें समान होनेसे भेद करने के लिए अपनेको तथा इसके ऊरुद्वयको भी अवश्यमेव चिह्नित करती है ), ( अथवा-कदली भी अपने स्तम्भ ( खम्ब) को अपना है ऐसा जानती है क्या ? तथा इस दमयन्तीके ऊरुद्वयको 'ये दोनों ऊरु दमयन्तीके हैं। ऐसा नहीं जानती
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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