________________ दशमः सर्गः। 561 दयश्च' इत्यनेन औणादिक ऊकप्रत्ययः, कुर्वादिगणे वावदूकशब्दपाठात् ऊकप्रत्यय इति माधवः तथा हि, तव मूकायितुं मूकवदाचरितुं, तूष्णीं स्थातुमित्यर्थः, मूकशब्दादाचारार्थे क्यजन्तात् 'कालसमयवेलासु तुमुन्' अयं कः समयः ? को वाऽवसरः ? अपि तु न कोऽपि इत्यर्थः। वाग्मिनाम् अवसरे तूष्णीम्भावो न युक्त इत्यर्थान्तरन्यासः // 71 // ___ अनेक लोकोंसे आये हुए इन राजाओंके वंश, शील तथा पराक्रमको जानती हो; अतः तुम ( उनका ) वर्णन करनेवाली बनो, तुम्हारे चुप रहने का यह कौन-सा समय है। [बोलने के समयमें वावदूकको चुप रहना उचित नहीं, अत एव तुम स्वयंवर में जाकर इन स्वयंवरागत राजाओंके कुल, शील तथा पराक्रमका वर्णन करो ] // 71 / / जगत्रयीपण्डितमण्डितैषा सभा न भूता न च भाविनी वा। राज्ञां गुणज्ञापनकैतवेन सङ्ख्यावतः श्रावय वाङमुखानि // 72 // वागवसरत्वमेवाह-जगदिति / हे वाणि! जगत्रय्यां ये पण्डिताः वाचस्पत्यादयः तैः अशेषैः मण्डिता एषा सभा न भूता न च भाविनी वा, अतो राज्ञां गुणज्ञापनकैतवेन गुणप्रकाशनच्छलेन, संख्यावतः पण्डितान् , वाङमुखानि उपन्यासान् , 'संख्यावान् पण्डितः कविः' इति, 'उपन्यासस्तु वाङ्मुखम्' इति चामरः / श्रावयः; पण्डितमण्डलीविलसिते विदुषां बाग्विजम्भणम् उचितं, तत्रापि तूष्णीम्भावे वाग्विफलत्वमयोग्यता च स्यादिति भावः // 72 // तीनों लोकों के पण्डितोंसे शोभित यह ( ऐसी) सभा न हुई है और न होगी, ( अत एव ) राजाओंके गुण बतलानेके व्याजसे पण्डितोंको ( अपना ) उपन्यास सुनाओ। [ पण्डितोंके सामने विद्वानोंका बोलना उचित है, वहां भी यदि वे नहीं बोलें तो उनका वचन निष्फल होता है और उनकी अयोग्यता प्रमाणित होती है, अत एव तुम्हें ऐसे सुन्दर अवसर पर नहीं चूकना चाहिये ]' / / 72 // इतीरिता तच्चरणात् परागं गीर्वाणचूडामणिमृष्टशेषम् / तस्य प्रसादेन सहाशयाऽसावादाय मूर्नाऽऽदरिणी बभार ||73 // इतीति / इति इत्थम्, ईरिता विष्णुना आज्ञप्ता, असौ वाणी, तस्य हरेः नारायणस्य, चरणात् गीर्वाणानां देवानां, चुडामणिभिः शिरोरत्नः, मृष्टस्य प्रोमिळूतस्य, शेषम् अवशिष्टं, परागं रेणुं, तस्य आज्ञया आज्ञारूपेण, प्रसादेन अनुग्रहेण, सह आदाय मूद्धर्ना आदरिणी आदरवती सती, बभार // 73 // (विष्णु भगवान्से ) इस प्रकार (1070-72 ) कही गयी यह (सरस्वती देवी) उन (विष्णु भगवान् ) के चरणसे देवों के मुकुटमणियों के द्वारा पोंछने से बचे हुए परागको उन ( विष्णु भगवान् ) की आज्ञारूप प्रसन्नताके साथ मस्तकसे लेकर ( स्वीकारकर ) आदरवती हुई / [ सरस्वतीने विष्णु भगवान्के चरणोंपर मस्तक झुकाकर प्रणाम करके उनकी आशाको आदरपूर्वक प्रसाद रूपमें ग्रहण किया ] // 73 / /