Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 711
________________ 642 नैषधमहाकाव्यम् / इयणुकं तद्वदेवोदरं यस्यास्तस्याः सम्बुद्धिः; शृङ्गारभावोद्दीपका अतिकृशोदरीति भावः, त्वं पुष्पेषुणा ध्रुवं सत्यम् , इषुवर्षे बाणमोक्षकाले, जप्तः उच्चारितः, यो हुकारः कोपप्रयुक्तः, स एव मन्त्रस्तस्य बलेन सामर्थ्येन, भस्मिता भस्मीकृता, 'तत् करोति-'इति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः, शान्ति शक्तिः इन्द्रियविग्रहसामथ्वं येषां तान् , अमून् द्वीपाधिपान् पुष्करादिद्वीपपालकान् राज्ञः, नयनयोर्गोचरत्वं दृष्टि विषयस्वं, नय पश्येत्यर्थः // 26 // हे शृङ्गाररचनामें अतिशय प्रवृत्त द्वयणुकके समान ( या द्वयणुक रूप ) अर्थात् अत्यन्त 'पतले उदर ( कटि ) वाली ( दमयन्ती )! कामदेवके द्वारा बाणवृष्टि करने में जपा गया ( पाठा-जपरूप ) हुङ्कार रूप मन्त्र-बलसे नष्ट हुई इन्द्रिय-निग्रहादि शक्तिवाले अर्थात् हुङ्कार करते हुए कामदेवके बाणवर्षा करनेसे बढ़ी हुई इन्द्रिय-शक्तिवाले ( कामवशीभूत ) इन सातों द्वीपोंके राजाओंको नेत्रोंका विषय करो अर्थात् देखो / [जैसे 'हुँ, फट' आदि मन्त्रका जप करता हुआ कोई व्यक्ति प्रतिपक्षीकी शक्तिको नष्ट कर देता है, उसी 'प्रकार कामदेवने हुङ्कारका उच्चारण करते हुए बाणोंकी वर्षाकर इनकी जितेन्द्रियत्व रूप शक्तिको नष्ट कर कामवशीभूत कर दिया है। बाण छोड़ते समय 'हुम्' शब्दका उच्चारण करना अनुभवगम्य विषय है ] // 26 // स्वादूदके जलनिधौ सवनेन सार्द्ध भव्या भवन्तु तव वारिविहारलीलाः / द्वीपस्य तं पतिममुं भज पुष्करस्य निस्तन्द्रपुष्करतिरस्करणक्षमाक्षि!॥ स्वाद्विति / हे निस्तन्द्रपुष्करतिरस्करणक्षमाति ! उन्निद्रपद्मविजयसमर्थनेत्रे / कमलायताक्षीत्यर्थः, पुष्करस्य पुष्कराख्यस्थ द्वीपस्य, पतिं सवनम्, अमुं भज वृणीष्व, ततः स्वादूदके जलनिधी मधुरोदकसमुडे, सवनेन सवनाख्येन राज्ञा, साद्ध तव भव्याः मनोहराः, वारिविहारलीलाः जलक्रीडाविनोदाः, भवन्तु सन्तु // ह विकसित कमल के तिरस्कार में समर्थ नेत्रवाली ( कमलविजयी नेत्रोंवाली दमयन्ती)! स्वादिष्ट जलवाले समुद्रमें 'सवन' नामक इस राजाके साथ तुम्हारी जलविहारकी क्रीड़ाएँ सुन्दर हों, उस 'पुष्कर' द्वीपके पति इस ( 'सवन' राजा ) को वरण करो। [ यह 'पुष्कर' द्वीपका राजा है इसका 'सवन' नाम है, इसको वरणकर उस द्वीपके स्वादु जलवाले समुद्रमें इस राजाके साथ सुखद जलक्रीडा करो] // 27 // सावर्तभावभवदद्भुतनाभिकूपे ! स्वभौममेतदुपवर्त्तनमात्मनैव / स्वाराज्यमर्जयसिन श्रियमेतदीयामेतद्गृहे परिगृहाण शचीविलासम्॥ सावतैति / रोग्णाम् अम्भसाच भ्रमः आवतः, आवर्तेन सह वर्तमानः सावतः तस्य भावः तेन सावर्तभावेन सावर्त्तत्वेन, भवत् प्रादूर्भूतम् , अद्भुतम् आश्चर्य यस्मात् स चित्रीयमाणः, नाभिरेव कूपो यस्याः सा तस्याः सम्बुद्धिः सावतत्यादि कूपे सावर्त्तत्वं चित्रमिति भावः, एतस्य राज्ञः सवनस्य, उपवर्त्तनं देशः, 'देशविषयौ

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