________________ एकादशः सर्गः। . . सम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तस्तद्रूपातियोक्तिः, तया च तस्य तरोः ख्यातिः व्यज्यते इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 38 // जहाँ (जिस शाकद्वीपमे ) तोतेके पङ्ख के समान कान्तिवाले पत्रसमूहको धारण करनेवाला 'शाक' नामक वृक्ष तुम्हारे चित्तको हरण ( आकृष्ट ) करेगा। जिस ( 'शाक' वृक्ष) के पत्तों के सम्बन्ध विस्तार से हरित (हरे) वर्णवाली बनी हुई दिशाएँ संसार में (हरित्' ऐसे ) अन्वर्थ नामवाली प्रसिद्ध हो गयी हैं [ इस विशाल 'शाक' वृक्षके पत्तोंसे हरी बनने के कारण दिशाओंका नाम 'हरित्' प्रसिद्ध हो गया है, ऐसे वृक्षको देखकर तुम्हारा चित्त आकृष्ट हो जायेगा, अतएव इस रम्नाको वरणकर उस 'शाक' वृक्षको देखनेका सुअवसर मत छोड़ो ] // 38 // स्पर्शन तत्र किल तत्तरुपत्रजन्मा यन्मारुतः कमपि सम्मदमाददाति / कौतूहलं तदनुभूय विधेहि भूयःश्रद्धां पराशरपुराणकथान्तरेऽपि // 39 / / स्पर्शनेति / तत्र द्वीपे, किल तस्य तरोः पत्रेभ्यो जन्म यस्य तज्जन्मा मारुतः स्पशन स्पर्शमात्रेण, कमप्यनिर्वचनीयं, सम्मदम् आनन्दम्, आददातीति यत् तदानन्ददानरूपं, कौतूहलं, कौतुकं, विस्मयजनकव्यापारमित्यर्थः, 'कौतूहलं कौतुकञ्च कुतुकञ्च कुतूहलम्' इत्यमरः, अनुभूय भूयः पुनरपि, पराशरपुराणे विष्णुपुराणे, यत् कथान्तरम् अन्या कथा तन्त्र, श्रद्धां विधेहि विश्वासं कुरु, तत्रैव सकलभूगोलवृत्तान्तकथनादेकदेशसंवादस्य यथार्थत्वेन तदुक्तकथान्तराणामपि विश्वसनीयत्वादिति भावः। अत्र विष्णुपुराणवाक्यं-'शाकस्तत्र महावृक्षः सिद्धगन्धर्वसेवितः। यत्पत्र. वातसंस्पर्शादाह्लादो जायते परः // इति // 39 // __ वहाँ (शाकद्वीपमें) उस वृक्ष (शाकवृक्ष) के पत्तोंसे उत्पन्न वायु किसी (अनिर्वचनीय) हर्षको जो पैदा करती है, उस कौतुकका अनुभव करके पराशरोक्त (विष्णु-) पुराणकी अन्य कथाओंमें भी श्रद्धा ( अथवा-अत्यधिक श्रद्धा ) करो। [विष्णु पुराणमें पराशरने समस्त भूगोलके वर्णन-प्रसङ्गमें शाकद्वीपके पत्तोंके आह्लादकारक होनेका जो वर्णन किया है, उसे प्रत्यक्ष अनुभव कर के उस पुराणमें कही गयी शेष कथाभागको भी सत्य मानकर फिर श्रद्धा करो, अर्थात् यद्यपि पुराणों में तुम्हें इस समय भी श्रद्धा है, किन्तु उसमें लिखित कथाको प्रत्यक्ष देखकर उस श्रद्धाको फिर दृढ करो, अथवा-( 'भूयसी चासौ श्रद्धा चेति ताम्' ऐसा कर्मधारय समास करके 'भूय:श्रद्धाम्' पदको एक शब्द मानकर ) 'अधिक श्रद्धा हो // 39 // क्षीरार्णवस्तव कटाक्षरुचिच्छटानामध्येतु तत्र विकटायितमायताक्षि!। वेलावनीवनततिप्रतिबिम्बचुम्बिकिर्मीरितोर्मिचयचारिमचापलाभ्याम् / / क्षीरेति / हे आयताक्षि ! तत्र शाकद्वीपे, क्षीरार्णवस्तव कटाक्षरुचिच्छटानां कटा. क्षकान्तिजालानां, 'वृन्दं जालं चक्रवालं जालकं पेटकं छटा'इति वैजयन्ती, विकटा