Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 740
________________ एकादशः सर्गः। कुमुदानन्दकरत्वेन प्रसिद्धानि; तथा च वराहमिहिरः,-'यत्तेजः पितृधानि शीतमहसः पाथोमये मण्डले संक्रान्तं कुमुदाकरस्य कुरुते काञ्चित् विकासश्रियम्' इति // 8 // ___ कन्धेपर शिविकादण्डको समान भारसे रखे हुए वे (विमानवाहक ) ससार में मुख्य दीपकरूप उस ( 'मेधातिथि राजा ) से भी उस ( दमयन्ती) को उस प्रकार हटा ले गये, जिस प्रकार उदय होनेवाली (द्वितीयाकी ) चन्द्रकलाको उत्कण्ठित कुमुद्रतीके पुण्याङ्कर सूर्यसे हटा (आकृष्ट कर ) लेते हैं। [ अमावस्याको सम्पूर्ण चन्द्रकला सूर्यमें प्रविष्ट हो जाती है, वह शुक्लपक्षमें क्रमशः सूर्यसे हटती ( अलग होती ) जाती है / शिविकावाहक लोग दमयन्तीको दूसरे राजाके पास ले गये ] // 81 // भूपेषु तेषु न मनागपि दत्तचित्ता विस्मेरया वचनदेवतया तयाऽथ / वाणीगुणोदयतृणीकृतपाणिवीणानिकाणया पुनरभाणि मृगेक्षणा सा // भूपेष्विति / मृगेक्षणा सा भैमी, तेषु भूपेषु द्वीपाधिपतिषु, मनाक् ईषदपि, दत्तचित्ता अर्पितहृदया, आसक्तमानसा इत्यर्थः, न, जातेति शेषः, अथ अनन्तरं, दमयन्त्याः चित्तवृत्तिज्ञानानन्तरमित्यर्थः, विस्मेरया विस्मितया सहास्यया वा, 'नमिकम्पि-' इत्यादिना विपूर्वात् स्मिधातोः र-प्रत्ययः, वाणीगुणोदयेन माधुर्यादि. वाग्गुणप्रकर्षेण, तृणीकृतः तिरस्कृतः, पाणिवीणायाः हस्तस्थितविपन्च्याः , निकाण: ध्वनिः यया तया वीणाधिकमधुरभाषिण्या, वचनदेवतया वाग्देव्या,सया सरस्वत्या, पुनः अभाणि // 82 // इस ( शिविकावाहकों के द्वारा दमयन्तीको दूसरे राजाके पास पहुँचाने ) के बाद उन राजाओंमें थोड़ा भी मन नहीं लगानेवाली मृगनयनी उस ( दमयन्ती ) से, (किसी राजामें कुछ भी अनुराग नहीं करनेसे ) आश्चर्यित और अपनी वाणीके ( माधुर्यादि) गुणों के उत्पन्न होने से पाणिस्थित वीणाके स्वरको तिरस्कृत करनेवाली उस ( सरस्वती देवी) ने फिर कहा-[ उत्तमोत्तम गुणयुक्त भी किसी राजामें दमयन्तीके थोड़ा-सा भी अनुराग नहीं करनेसे सरस्वती देवीका आश्चर्यित होना उचित ही है ] / / 82 / यन्मौलिरत्नमुदिताऽसि स एष जम्बूद्वीपस्त्वदर्थमिलितैर्युवभिर्विभाति / दोलायितेन बहुना भवभीतिकम्पः कन्दर्पलोक इव खात्पतितस्त्रुटित्वा / यदिति / हे भैमि ! त्वं यस्य जम्बूद्वीपस्य, मौलिरत्नं भूत्वा उदिता उत्पन्ना, असि, स एष जम्बूद्वीपः, स्वदथं तुभ्यं, मिलितैः, युवभिः हेतुभिः विभाति; क इव ? भवभीत्या रुद्रभयेन, कम्प्रः कम्पनशीलः, अत एव बहुना अनेकेन, प्रबलेनेत्यर्थः, दोलायितेन दोलनेन, त्रुटित्वा विच्छिद्य, खात् स्वर्गात् , 'खमिन्द्रिये सुखे स्वर्गेशून्ये विन्दौ विहायसि' इति विश्वः, पतितः कन्दर्पलोकः कामजगदिव, इत्युस्प्रेक्षा विभा. तीत्यन्धयो वा / कम्प्रं वस्तु बहुदोलनेन त्रुटितं शून्यमार्गात पतति इति प्रसिद्धिः / सभास्थिताः सर्वे राजानः कन्दर्पतुल्या इति भावः // 83 //

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