Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 756
________________ 687 एकादशः सर्गः। फल ) के द्वारा पीतवर्ण कर दिया अर्थात् वे हाथ अब केवल कमल-पुष्प-कान्तिवाले न होकर कमल-फल-कान्तिवाले (पुष्पकी अपेक्षा सफल, अथ च श्वेतकी अपेक्षा रंगीन और वर्ण होने से श्रेष्ठ ) बना दिये गये ] // 110 // वैरिश्रियं प्रति नियुद्धमनाप्नुवन् यः किञ्चिन्न तृप्यतिधरावलयकवीरः / स त्वामवाप्य निपतन्मदनेषुवृन्दस्यन्दीनि तृप्यतु मधूनि पिबन्निवायम्॥ वैरीति / धरावलये भूमण्डले, एकवीरः अद्वितीययोद्धा, यःमथुरापतिः, वैरिश्रियं प्रति शत्रुलक्ष्मी लक्ष्यीकृत्य, नियुद्धं नितरां युद्धं, बाहुयुद्धमित्यर्थः, 'नियुद्धं बाहुयुः खेऽथ' इत्यमरः। अनाप्नुवन् किश्चित् ईषदपि, न तृप्यति न तद्विना सन्तुष्यती. स्यर्थः, यस्य भयात् युद्धं विनैव शत्रुनृपतिसमर्पितराजलक्ष्मीलाभेऽपि युद्धेच्छाविगमाभावात् अयं न किञ्चिदपि सन्तुष्यतीति भावः / स नियुद्धप्रियोऽयं राजा, स्वाम अवाप्य निपततां मदनेषूणां कन्दर्पबाणभूतानां कुसुमानां, वृन्दात् स्यन्दन्ते नवन्तीति स्यन्दीनि, मधूनि मकरन्दान् , पिबन्निव तृप्यतु; स्वमस्य राजलक्ष्म्यपे. क्षयाऽपि तृप्तिदायिनीति भावः / अत्र मदनेषुभूतकुसुममधुपानोत्प्रेक्षया तेषामेवेषूणां स्वत्समागमात् गाढानन्दकरित्वप्रतीतेः अलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 111 // ___ पृथ्वीमें प्रधान वीर जो ( 'पृथु' राजा) शत्रुलक्ष्मीको लक्ष्यकर बाहुयुद्ध (पक्षा०आलिङ्गन ) को नहीं पाता हुआ थोड़ा भी सन्तुष्ट नहीं होता है (इसके भयसे शत्रुलोग बिना युद्ध किये ही अपनी लक्ष्मीको समर्पित कर देते हैं, अत एव युद्धका अवसर नहीं मिलनेसे इस वीर राजाको पूर्ण सन्तोष नहीं होता ), वह (बाहुयुद्धप्रिय ) यह ( पृथुराजा) तुम्हें पाकर गिरते हुए कामबाणों (पुष्पों ) के समूहोंसे बहते हुए मकरन्दों (पुष्प-परागरूप मद्य ) का पान करता हुआ सन्तुष्ट होवे / [ लोकमें भी किसी अभीष्ट वस्तुको नहीं मिलनेसे असन्तुष्ट व्यक्ति मद्यपानकर प्रथम असन्तोषकर विषय भूल जानेसे सन्तोषानुभव करता है। तस्मादियं क्षितिपतिक्रमगम्यमानमध्वानमैक्षत नृपादवतारिताक्षी। तद्भावबोधबुधतां निजचेष्टयैव व्याचक्षते स्म शिविकानयने नियुक्ताः॥ तस्मादिति / इयं भैमी, तस्मात् नृपात् , अवतारिताक्षी निवारितदृष्टिः सती, क्षितिपतीनां गन्तव्यनृपाणां, क्रमेणानूपूा, गम्यमानम् अध्वानम् ऐक्षत ; अथ शिविकानयने नियुक्ताः शिविकावाहिनः, तस्या भावबोधे अभिप्रायज्ञाने, बुधतां पाण्डित्यं, निजचेष्टया अन्यतो नयनक्रिययैब, व्याचक्षते स्म ज्ञापयामासुरित्यर्थः। उस राजासे दृष्टि हटायी हुई इस ( दमयन्ती) ने राजक्रमसे प्राप्य (आगेवाले) मार्गको देखा तथा शिविका ढोने में तत्पर (शिविकावाहक ) अपनी चेष्टा (दमयन्तीको उस राजाके पाससे हटाकर दूसरे राजाके पास ले जाने ) से ही उस ( दमयन्ती) के भावको जाननेके पाण्डित्यको प्रकट कर दिये। [शिविकावाहक दमयन्तीको दूसरे राजाके पास ले गये। अन्य भी कोई व्यक्ति अपनी चेष्टासे दूसरोंके भाव-ज्ञानके चातुर्यको स्पष्ट करता है] // 112 //

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