________________ एकादशः सर्गः। 670 च नगर्या प्रत्यहं हरशिरस्थितेकचन्द्रकलया प्रतिपबुद्धया स्त्रियः भत्तसमीपे श्रुतिपरुषाचरपाठं न कुर्वन्ति इति निष्कर्षः // 12 // - सैकड़ों अपराध ( सपत्नीगमन, गोत्रस्खलन आदि ) करते हुए भी इस राजाकी उद्दीप्त कामवासनावाली खियां परुष अक्षरको नहीं पढ़ती हैं (अर्थात् प्रतिकूल प्रकृति होनेपर भी कामोद्दीपित रहने के कारण इस राजाके अपराधोंको प्रत्यक्षमें जानकर भी कठोर वचन नहीं कहती हैं)। उस ( उज्जयिनी ) में शङ्कर जी के मस्तकमें स्थित, अनध्यायतिथि ( प्रतिपदा ) का चिह्न चन्द्रकला ( प्रतिपदाकी चन्द्रकला ) नहीं दूर होती है / [ सब अनध्यायों में प्रतिपदातिथिका अनध्याय मुख्य है तथा वहां शङ्करजी के मस्तकमें प्रतिपदाकी चन्द्रकलाका सदा दर्शन होनेसे इसकी स्त्रियां प्रतिदिन प्रतिपदाको ही समझती हैं, अतः एक एक भी परुष अक्षर नहीं पढ़ती, अर्थात् सदा चन्द्रकलाको देखकर कामोद्दीपित रहनेसे वामा (कर या प्रतिकूल स्वभाववाली, पक्षा०-सुन्दरी) स्त्रियां इस राजाके सैकड़ों अपराध करने पर भी कटु वचन नहीं कहती। इस अवन्तीनायको सैकड़ों अपराध करनेवाला बतलाकर सरस्वती देवाने उसे वरण करने में अपनी असम्मति प्रकट की है ] // 92 // भूपं व्यलोकत न दूरतरानुरक्तं सा कुण्डिनावनिपुरन्दरनन्दना तम् / अन्यानरागविरसेन विलोकनाद्वा जानामि सम्यगविलोकनमेव रम्यम् / / ___ भूपमिति / कुण्डिनावनिपुरन्दरस्य कुण्डिनभूमीन्द्रस्य भीमभूपस्य, नन्दना दुहिता, नन्द्यादित्वात् ल्युट् प्रत्यये टाप / सा दमयन्ती दूरतरानुरक्तम् अत्यनुरागि णमपि, तं भूपं न व्यलोकत नैक्षत; अत्रैतदेव वरमित्याह-वा अथवा अन्यानुरागात् अन्यस्मिन् नले अनुरकत्वात् विरसेन विरागेण, अश्रद्धयेत्यर्थः, विलोकनात् , विलोकनमपेच्य, दर्शनापेक्षयेत्यर्थः, ल्यबर्थे पञ्चमी, सम्यक सर्वथा, भविलोकनमेव अदर्शनमेव, रम्यं श्रेष्ठं, समीचीनमित्यर्थः, इति जानामि // 93 // ___उस कुण्डिनेशकुमारी ( दमयन्ती ) ने अत्यन्त अनुरक्त मी उस राजा ( अवन्तीनाथ ) को नहीं देखा, अथवा दूसरे ( नल ) में अनुराग होनेसे नीरस अर्थात् अनुरागरहित देखने की अपेक्षा नहीं देखना ही ( मैं ) उत्तम समझता हूँ। [जिसमें अनुराग ही नहीं है, उसे देखने की अपेक्षा नहीं देखना ही श्रेष्ठ है ] // 93 / / भैमीङ्गितानि शिविकामधरे वहन्तः साक्षान्न यद्यपि कथञ्चनजानते स्म / जस्तथाऽपि सविधस्थितसम्मुखीनभूपालभूषणमणिप्रतिबिम्बितेन // 14 // भैमीति। शिविकामधरे अधरप्रदेशे, वहन्तो वोढारः, भैमीङ्गितानि भैमीचेष्टितानि, यद्यपि कथञ्चन कथञ्चिदपि, साक्षात् प्रत्यक्षं, न जानते स्म न अजानन्त, तथाऽपि सविधे स्थितेषु, सम्मुखं दृश्यते एग्विति सम्मुखीनेषु सांमुख्येन प्रतिबिम्बमाहिष्विस्यर्थः, 'यथामुखसम्मुखस्य दर्शनः खः' इति ख-प्रत्ययः, भूपालस्यावन्तिराजस्य,