________________ एकादशः सर्गः। 683 राजकस्य राजसमूहस्य, धुमकेतुतारायमाणं धूमकेत्वाख्यनक्षत्रवदाचरन्तं, राजक्षयकारकत्वात् तद्वदुपपलवायमानमित्यर्थः, आचारे क्यङन्तालटः शानच, मणि कण. माणिक्यं, पश्य // 104 // अनेक प्रकारके पल्लवो ( या विद्रुमों मूंगाओ ) को अधरसे तिरस्कृत करनेवाली हे बाले ( दमयन्ति )! इस ('पृथु' राजा ) के हाथमें संसारको जीतने ( या वशमें करनेवाली), धनुषकी डोरीके आघातसे उत्पन्न किण (घट्टे) से रंगकर (श्यामवर्ण होकर) शत्रु क्षत्रिय-राजकुमारों के लिये धूमकेतु ताराके समान आचरण करनेवाली मणि अर्थात् कङ्कणको देखो। [निरन्तर बाण चलानेसे इस राजाके हाथमें धनुषकी डोरीसे घट्ठा पड़ गया है जो शत्रुराजाओंके नाश करनेके लिये उदित धूमकेतु ताराके समान मालूम पड़ता है और उसकी श्याम वर्ण कान्ति इस राजाके जिस हस्तकङ्कणमणिमें पड़ती है, उसे तुम देखो। इतनी थोड़ी अवस्था में ही शत्रओंको पराजित करनेसे यह 'पृथु' राजा बड़ा शूरवीर है, अत एव इसे वरण करो] // 104 // एतद्भुजारणिसमुद्भवविक्रमाग्निचिह्न धनुर्गुणकिणः खलु धूमलेना। जातं ययाऽरिपरिषन्मशकार्थयाऽश्रुवित्रावणाय' रिपुदारदगम्बुजेभ्यः॥ एतदिति / एतस्य राज्ञः,भुजाया एव अरणेः निर्मन्थ्यकाष्ठात् , 'निर्मन्थ्यदारुणि स्वरणिद्वयोः' इत्यमरः / समुद्भवस्य समुत्पन्नस्य, विक्रमाग्नेः चिह्नमनुमापकं लिङ्ग, धनुर्गुणकिणो ज्याऽऽघातरेखा, धूमलेखा, धूमरेखा, खलु निश्चये; अरिपरिषदः अरिसङ्घाः, ता एव मशकास्तदर्थया तन्निवृत्त्यर्थया, 'अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजनिवृ. त्तिषु' इत्यमरः / अर्थन सह नित्यसमासः सर्वलिङ्गता च वक्तव्या। ययाधूमलेखया, रिपुदाराणां दृगम्बुजेभ्यो नयनारविन्देभ्यः, अश्रुवित्रावणाय बाष्पोद्गमाय, जातम् / धूमोरपीडनादश्रुस्त्रावो जायते; अयं शत्रुघाती बलवांश्चेति भावः। अत्र रूपकालङ्कारः॥ इस ( 'पृथु' राजा ) की भुजारूपी अरणि ( यज्ञमें सङ्घर्षणसे अग्नि उत्पन्न करनेवाला काष्ठ-विशेष ) से उत्पन्न अग्निका चिह्न धूमरेखा धनुषकी तांत (डोरी) से उत्पन्न किया अर्थात् घट्ठा है, जो (धूमरेखा) शत्रुसमूहरूप मच्छरके लिये (मच्छरको दूर करने अर्थात् नष्ट करने के लिए ) तथा शत्रुस्त्रियों के नेत्रकमलोंसे अश्रु गिराने के लिए हुई है। (पाठा०-शत्रुस्त्रियों के नेत्रकमलों को अश्रु देने के लिए हुई है)। [धूमरेखाका अग्निचिह्न होना उचित ही है। इस राजाके हाथमें धनुषकी डोरीका जो श्यामवर्ण घट्ठा है, वही इसके बाहुरूप अरणिसे उत्पन्न पराक्रमरूपी अग्निकी चिह्न धूमरेखा है और उस धूमरेखासे मच्छर के समान शत्रु-समूह दूर ( नष्ट ) हो जाते हैं और शत्रुस्त्रियों के नेत्रोंसे आंसू गिरने लगते हैं। धूमरेखाका अग्निचिह्न होना, उससे मच्छरोंका दूर होना और नेत्रोंसे आंसू गिरना उचित ही है। यह राजा बहुत बहादुर है, अत एव इसे स्वीकार करो] // 105 // 1. 'विश्राणनाय' इति पा० /