Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 739
________________ 670 नैषधमहाकाव्यम्। भी-दोनों एक साथ अपने-अपने द्वीप (क्रमशः 'जम्बूद्वीप तथा प्लक्षद्वीप' ) की सीमामें ( या सीमाभूत ) समुद्र के प्रवाह के दूसरे तीरके पर्वतपर (पाठा०-तीरपर बलद्वारा) आक्रमण करने (चढ़ने ) का पराक्रम करते हैं (या आक्रमणरूप पराक्रमणरूप करते हैं)।: [नल तथा यह मेधातिथि एक साथ ही अपनी-अपनी कीर्तिको अपने-अपने द्वीपको : सीमाभूत समुद्र के पार वाले पर्वत पर चढ़ने के लिये भेजकर अपना-अपना पराक्रम प्रदर्शित करना चाहते हैं / ( 'आजुहूयोः' ( आह्वान स्पर्धा ) करने की इच्छा करते हुए ) पदसे यह नलकी स्पर्धा करनेकी इच्छा ही करता है, हीनबल होनेसे यह स्पर्धा करता नहीं। अथवा-यह नियम है कि बड़े के बराबर होने के लिये उसकी स्पर्धा छोटा करता है, छोटेकी स्पर्धा बड़ा कभी नहीं करता; अत एब यहां पर इस मेधातिथिका नलकी स्पर्धा करना बतलाकर इस नलसे हीन होनेका संकेत सरस्वती देवीने किया है ] // 79 // / अम्भोजगभरुचिराऽथ विदर्भसुभ्रूम्तं गर्भरूपमपि रूपजितत्रिलोकम् / वैराग्यरूक्षमवलोकयति स्म भूपं दृष्टिः पुरत्रयरिपोरिव पुष्पचापम् / / .. अम्भोजेति / अथ एतद्वाक्यश्रवणानन्तरम्, अम्भोजगर्भवत् रुचिरा रम्या, तद्वत् कोमलाङ्गीत्यर्थः, विदर्भसुभ्रः वैदर्भी, प्रशस्तो गर्भो गर्भरूपस्तं पूर्ववयसं, युवानमः पीत्यर्थः, प्रशंसायां रूपप, रूपजितत्रिलोकं रूपेण सौन्दर्येण, जितास्त्रयो लोका येन तं, पुष्पचापेऽपीदं योज्यम्; तं भूपं मेधातिथि, पुष्पचापं कामं पुरत्रयरिपोः ईश्वरस्य, दृष्टिरिव वैराग्यरूतं वैराग्येण अपरागेण, रूक्षं परुषं यथा तथा, अवलोक. यति स्म; अतिसुन्दरेऽपि तस्मिन् राज्ञि न अनुरक्ता अभूत् इति भावः // 8 // ___ इस ( सरस्वती देवाके ऐसा ( 11 / 72-79 ) कहन क ) वाद कमल-गर्भके समान सुन्दरी दमयन्तीने रूपसे तीनों लोकोंको जीतनेवाले युवक भी उस ('मेधातिथि' राजा ) को रूपसे तीनों लोकीको जीतनेवाले पुष्पवाण ( कामदेव ) को शङ्काजीकी दृष्टि के समान वैराग्यसे रूक्षतापूर्वक देखा। (प्रियतम नलके साथ स्पर्धा कर नसे दमयन्तीका उस 'मेधातिथि'राजामें वैराग्य होना तथा क्रोधोदय होनेसे रूक्षतापूर्वक देखना उचित ही है ] / ते तां ततोऽपि चकृषुर्जगदेकदीपादंसस्थलस्थितसमानविमानदण्डाः। चण्डद्यतेरुदयिनीमिव चन्द्रलेखां सोत्कण्ठकैरववनीसुकृतप्ररोहाः // - ते इति / अंसस्थलेषु स्कन्धेषु, स्थितः समानः एकरूपः, विमानदण्डो येषां ते समविभक्तभरा इत्यर्थः, ते धुर्याः, तां भैमी, सोत्कण्ठायाः चन्द्रलेखोत्सुकाया:, कैरववन्याः कुमुदिन्याः, सुकृतप्ररोहाः सौभाग्योन्मेषाः, उदयिनीम् उदयोन्मुखी, चन्द्रलेखाम अमावस्यायां सूर्यमण्डलप्रविष्टां चन्द्रकलां, शुक्लपक्षीयप्रतिपदादि. तिथिरूपामित्यर्थः, जगदेकदीपात् तेजस्वितया जगतामद्वितीयप्रकाशकस्वरूपात्, चण्डद्युतेः सूर्यादिव, जगदेकदीपात्ततो मेधातिथेरपि, चकृषुः आकर्षयामासुः, तत्स. काशात् राजान्तरं प्रापयामासुरित्यर्थः। सूर्यस्य तेजांसि एव चन्द्रे सक्रान्ततया

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