Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 726
________________ एकादशः सर्गः। 657 अत्यन्त नवीन यश छोटे जलाशयके तैरते-तैरते दूर जाने के क्रमसे (पहले जलाशयके कुछ भाग तक, बाद में उससे कुछ अधिक भागतक और इस प्रकार धीरे-धीरे पार तक-इसी कमसे बढ़े जलाशयों के पारतक तदनन्तर ) समुद्र के पारतक तैरनेके लिये अभ्यास कर रहा है और यहां (समुद्र या इस स्थान ) से सम्पूर्ण दिशाओं के अन्ततक बिना अमके जानेका अभ्यास करता है। [अन्य भी कोई व्यक्ति पहले छोटे जलाशयमें धीरे-धीरे तैरनेका अभ्यास बढ़ाकर बड़े जलाशयों तथा बादमें समुद्र तकमें तैरनेका अभ्यास कर लेता है। सरस्वती देवीने इस राजाके यशको नवीनतम बतलाकर इसके वरणमें अनास्था प्रकट की है ] // . तस्मिन् गुणैरपि भृते गणनादरिद्रैस्तन्वी न सा हृदयबन्धमवाप भूपे। देवे विरुन्धति निबन्धनतां वहन्ति हन्त ! प्रयासपरुषाणि न पौरुषाणि // , तस्मिन्निति / तन्वी कृशाङ्गी, 'वोतो गुणवचनात्' इति विकल्पात् ङीष् सा भैमी, गणनादरिद्रैः, सङ्घयाशून्यैः, असङ्ख्यैरित्यर्थः, गुणैः भृतेऽपि पूर्णेऽपि, तस्मिन् भूपे द्युतिमदाख्ये राज्ञि, हृदयस्य बन्धं मनःसङ्गं, नावाप; तथा हि, देवे भागधेये, विरुन्धति प्रतिबध्नति सति, प्रयासेन दुःखबाहुल्येन, परुषाणि दुष्कराणि, पौरु. पाणि पुरुषकाराः, युवादित्वादण-प्रत्ययः निबन्धनता कार्यहेतुत्वं, न वहन्ति इत्य. र्थान्तरन्यासः; हन्तेति खेदे / वागुरापाशकादौ हरिणी यद् बन्धनमाप्नोति तत्र देवविडम्बना एव हेतुरिति ध्वनिः // 55 // ___ कृशोदरी वह ( दमयन्ती ) अगणनीय गुणोंसे परिपूर्ण भो उस ( 'द्युतिमान्' राजा ) में मनोऽमिलाष नहीं किया ( उस राजाको वरण करना नहीं चाहा ) भाग्यके प्रतिकूल होते रहने पर प्रयाससे दुष्कर भी पुरुषार्थ कार्यसाधक हेतु नहीं होते हैं। [ भाग्य के प्रतिकूल. होनेपर पुरुषों के कठोर प्रयास भी निष्फल हो जाते हैं ] // 55 // ते निन्यिरे नृपतिमन्यमिमाममुष्मादसावतंसशिविकांशभृतः पुमांसः। रत्नाकरादिव तुषारमयूखलेखां लेखानुजीविपुरुषा गिरिशोत्तमाङ्गम् // ते इति / ते प्रकृताः, अंसावतंसान् स्कन्धभूषणस्वरूपान् , शिविकायाः अंशान् अवयवान् , बिभ्रति ये ते, घुमासो यानवाहिपुरुषाः, लेखानुजीविपुरुषाः देवात्मकानुचराः, 'अमरा निर्जरा देवाः 'लेखा अदितिनन्दनाः' इत्यमरः / रत्नाकरात् रत्ना• करसकाशात् , तुषारमयूखलेखां चन्द्रकलां, गिरिशोत्तमाकं शिवशिर इव, इमां भैमीम् अमुष्मात् एतद्राजसकाशात् अमुं नृपं विहाय इत्यर्थः, अन्यम् इतरं, नृपति निन्यिरे प्रापयामासुः / भिवादात्मनेपदम् // 56 // __कन्धेके भूषण शिविकाके एकदेश ( डण्डे ) को धारण किये (कन्धेपर रक्खे ) हुए वे पुरुष अर्थात् (शिविकावाहक) उस ( दमयन्ती) को उस (युतिमान् ) राजासे हटाकर दूसरे राजाके पास उस प्रकार ले गये, जिस प्रकार देवानुचर चन्द्रकलाको शङ्कर जीके मस्तक. के पास अर्थात् मस्तकपर ले जाते है // 56 / /

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