________________ एकादशः सर्गः। वाले सौभाग्य (पतिप्रेम आदि ) के ओषधियों की जड़से वशीकरणरूप उपदाको देगा। [दीपके ऊपर कज्जलके समान उस द्रोणपर्वतके शिखरों पर काले मेघ है जिनसे वह पर्वत बहुत सुन्दर मालूम पड़ता है, और उसमें बहुत-सी जड़ी-बूटियां है / अत एव तुम इस राजाको वरण कर उस पर्वतसे बड़े भाग्यसे प्राप्य वशीकरण बूटी को पा सकती हो इस कारण इस राजाको वरण करो ] // 69 // तद्वीपलक्ष्मपृथुशाल्मलितूलजालैःक्षोणीतलेमृदुनि मारुतचारुकीर्णैः। लीलाविहारसमये चरणार्पणानि योग्यानि ते सरससारसकोषमृद्धि ! // तद्द्वीपेति / सरसम् अभिनवं, यत् सारसं पद्म, तस्य कोषः मुकुलं, तद्वत् मृद्धी कोमला, तत्सम्बद्धौ हे सरससारसकोषमृद्धि ! अभिनवकमलकोरककोमले ! मारुतेन चारु यथा तथा कीर्ण, तद्वीपस्य लचम चिह, पृथुः महान् , यः शाल्मलिः तदाख्यया प्रसिद्धवृक्षविशेषः, 'स्थिरायुः शाल्मलिद्वयोः' इत्यमरः / तस्य तूलजालैः तूलसमूहैः, मृदुनि कोमले, क्षोणीतले ते तव, लीलाविहारसमये क्रीडासचरणकाले, चरणार्प. णानि पादविन्यासाः, योग्यानि अनुरूपाणि, भविष्यन्तीति शेषः, अतिकोमलायास्ते अतिकोमलस्थले एव गमनं युक्तं, तवातिश्लाघ्यमिति भावः / अत्रानुरूपयोगोतो, समालङ्कारः, 'सा समालकृतियोंगे वस्तुनोरनुरूपयोः' इति लक्षणात् // 70 // . हे नवीन ( ताजे ) कमलकोशके समान कोमल ( दमयन्ति ) ! वायुके द्वारा सम्यक फैलाये गये, उस ( शाल्मल) द्वीपके चिह्न विशाल सेमलकी रुहयों के समूहसे कोमल भूतल पर लीलापूर्वक विहार करने के समय तुम्हारा पैर रखना योग्य होगा। [ कमलकोशके समान कोमलाङ्गी तुम्हारे विहार के योग्य कोमलतम भूमि इस राजाको स्वीकार करने पर ही प्राप्त होगी, अत एव तुम इसको स्वीकार करो ] // 70 // एतद्गुणश्रवणकालविज़म्भमाणतल्लोचनाञ्चलनिकोचनसूचितस्य / भावस्य चकुरुचितं शिविकाभृतस्ते तामेकतः क्षितिपतेरपरंनयन्तः // 71 / / ___ एतदिति / तां भैमीम्, एकतः एकस्मात् , क्षितिपतेः अपरं चितिपति, नयन्तस्ते शिविकाभृतो जन्याः, एतस्य राज्ञः, गुणश्रवणकाले विज़म्भमाणायाः तस्याः दमयन्त्याः, लोचनाञ्चलस्य नेत्रप्रान्तस्य, निकोचनेन सङ्कोचनेन, सूचितस्य ज्ञापि. तस्य, भावस्य अभिप्रायस्य, उचितम् अहं कृत्यं, चक्रः, अपरागज्ञानानन्तरमपसरणमेव उचितमिति भावः // 71 // ___उस ( दमयन्ती) को एक राजा ( 'वपुष्मान्' नामक राजा ) से दूसरे ( राजा ) के पास ले जाने वाले शिविकावाहकों ने, इस ( 'वपुष्मान्' राजा ) के गुणों को सुनने के समयमें विजम्भमाण ( बढ़ते हुए ) उस (दमयन्ती ) के नेत्रप्रान्त अर्थात् कटाक्षके सङ्कोचसे व्यक्त भाव ( उस राजामें अनुरक्तिका अभाव ) के अनुकूल ही किया। [उस राजाके गुणोंको सुनते समयमें दमयन्तीने उसे कटाक्षसे देखना बन्द कर दिया, यह कार्य सामने वाले अन्य