________________ 666 नैषधमहाकाव्यम् / राजाओ के भूषणों या मणिस्तम्भोंमें देखकर 'दमयन्ती इस राजा को नहीं चाहती' ऐसा उसका भाव मालूमकर उस राजासे हटाकर उसे दूसरे राजाके पास ले गये यह दमयन्तीके भाव को समझनेवाले विज्ञ शिविकावाहकोंने ठीक ही किया ] // 71 // तां भारती पुनरभाषत नन्वमुग्मिन् काश्मीरपङ्कनिभलग्नजनानरागे। श्रीखण्डलेपमयदिग्जयकीर्तिराजिराजद्भजे भज महीभुजि भैमि!भावम् / / तामिति / भारती तां भैमी, पुनरभाषत / किमिति ! ननु भैमि ! काश्मीरपङ्कनिभेन कुछमानुलेपनमिषेणेत्यपहवः, लग्नो जनानुरागो यस्मिन् तस्मिन् , श्रीखण्डलेपः चन्दनलेपनं, तन्मयीभिः दिग्जयकीतीनां राजिभिः राजन्ती शोभमानौ, भुजौ यस्य तस्मिन् , अमुष्मिन् महीभुजि राज्ञि,भावम् अनुरागं, भज / अत्र श्रीखण्डलेके कीर्तित्वोस्प्रेक्षा गम्या // 72 // ____ सरस्वती देवी उस ( दमयन्ती ) से फिर बोली-हे दमयन्ति ! कुङ्कुमके समान लगे हुए जनानुरागवाले तथा चन्दनलेपरूप दिग्विजयजन्यकीर्ति-समूहसे शोभित बाहुवाले इस राजामें अनुराग करो / [ इस राजा के प्रत्येक अङ्गमें रक्तवर्ण कुङ्कुमलेप जिस प्रकार लगा है उसी प्रकार प्रत्येक अङ्गके सुन्दरतम होनेसे उन्हें सभी जन अनुरागसे देखते हैं तथा बाहुमें श्वेत वर्ण जो चन्दनलेप लगा है वह ऐसा मालूम पढ़ता है कि यह बाहुओं द्वारा दिशाओं के विजय करनेसे कीर्ति लगी हुई है, जनानुरागका कुङ्कुम के समान अरुण वर्ण तथा दिग्विजयजन्या कीर्तिका चन्दनलेपके समान श्वेत वर्ण होना एवं प्रत्येक अङ्गके दर्शनीय होनेसे उसमें जनानुरागका तथा बाहुबलजन्य दिग्विजयकीर्ति-समूह होनेसे उसका बाहुमें संलग्न होना उचित ही है ] / / 72 / / द्वीपं द्विपाधिपतिमन्दपदे ! प्रशास्ति प्लक्षोपलक्षितमयं क्षितिपस्तदस्य | मेधातिथेस्त्वमुरसि स्फुर सृष्टसौख्या साक्षाद् यथैव कमला यमलार्जुनारे।। द्वीपमिति / द्विपाधिपतेः गजेन्द्रस्येव, मन्दम् अलसं, पदं गमनं यस्याः तस्याः सम्बुद्धिः, अयं क्षितिपः प्लक्षेण प्लक्षवृक्षण, उपलक्षितं चिह्वितं, द्वीपं प्लक्षद्वीपं प्रशास्ति पालयति, तत् तस्मात् , मेधातिथेः मेधातिथिनाम्नः, अस्य राज्ञः, उरसि सृष्टसौख्या जनितानन्दा सती, यमलयोः युग्मयोः, अर्जुनयोः ककुभवृक्षयोः, तद्रूपधारिणोः असुरयोरिति यावत् , अरेर्विष्णोः, उरसि साक्षात् कमला लचमीः, यथा तथैव स्फुर भाहि // 73 // - हे गजराजके समान मन्दगतिवाली ( दमयन्ति ) ! यह राजा 'प्लक्ष' वृक्ष से युक्त द्वीप अर्थात् 'प्लक्षद्वीप' का शासन करता है, इस कारण तुम इस मेधातिथि ( 'मेधातिथि' नामक' पक्षा-बुद्धि है अतिथि जिसकी ऐसे अतिशय बुद्धिमान् इस ) राजाके हृदयमें ( आलिङ्गनके द्वारा) सुख उत्पन्न करके श्रीविष्णु भगवान्के हृदयमें आलिङ्गन के द्वारा सुख उत्पन्न करने वाली साक्षात् लक्ष्मी के समान शोभित होवो // 73 //