Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

View full book text
Previous | Next

Page 736
________________ एकादशः सर्गः। लक्षे महीयसि महीवलयातपत्रे तत्रेक्षिते खलु तावापि मतिर्भवित्री। __ लक्ष इति / तत्र लक्षद्वीपे, अधिशाख शाखायां, विलम्बिनीभिः दोलाभिः लोलानि अखिलानि समस्तानि, अङ्गानि यस्याः तादृशी या बनता जनसमूहः, तया जनितोऽनुरागो यस्मिन् तस्मिन् , महीवलयस्यातपत्रे छत्ररूपे, महीयसि महत्तरे, प्लने प्लक्षवृते, ईषिते सति, तवापि खेलां दोलाक्रीडधं, 'क्रीडा खेला च कूर्दनम्' इत्यमरः / विधातुं कत्त, मतिः इच्छा, भवित्री भाविनी खलु, परकीयविहारदर्शनात् स्वस्यापि तदभिलाषी भवतीति भावः // 74 // उस ( प्लक्षद्वीप ) में शाखामों में लटकते हुए झूलाओंसे चन्चल समस्त अङ्गोंवाली जनतासे अनुराग उत्पन्न करनेवाले तथा भूमण्डलके छत्ररूप उस विशालतम लक्ष' वृक्षको देखनेपर क्रीडा करने (झूलेपर चढ़ने ) के लिये तुन्हारी भी रुचि होगी। [उस 'प्लक्षद्वीप' में महुत बड़ा 'प्लक्षवृक्ष' है जो छतनार होनेसे पृथ्वीमण्डलके छातेके समान जान पड़ता है और उसकी डालियों में झूला लगाकर बहुत लोगों को चढ़े एवं झूलते हुए देखकर तुम भी झूलेपर चढ़ना चाहोगी ] // 74 / / पीत्वा तवाधरसुधां वसुधासुधांशुन श्रद्दधातु रसमिक्षुरसोदवाराम् / द्वीपस्य तस्य दधतां परिवेशवेशं सोऽयं चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षि!॥ पीत्वेति / हे चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षि ! चकितचकोरचञ्चलनयने! वसुधासुधांशुः भूचन्द्रः, सोऽयं मेधातिथिः, तव अधरसुधाम् अधरामृतं, पीत्वा तस्य. द्वीपस्य परिवेशवेशं वेष्टनस्वरूपं, परिखाकारमित्यर्थः; 'परिवेशो वेष्टने स्यात् परिधावपि पुंस्ययम्र' इति मेदिनी, दुधताम्र इचरसः एवोदकं यस्य तस्य इरसाब्धेः, वारां वारीणां, रसं स्वादं, न श्रद्दधातु न अभिलषतु 'श्रद्धाऽऽस्तिक्याभिलाषयोः" इति वैजयन्ती / अमृतस्वादलोलुपस्य किमिक्षुरसगण्डूषैरिति भावः / चकोरा एव चन्द्रस्य अमृतं पिबन्ति, किन्तु चकोराच्याः तव अधरामृतं भूचन्द्रोऽयं पिबति अतः चमत्कृतपदस्य सार्थकता अवगन्तव्या इति निष्कर्षः // 75 // . हे चकित चकोर के समान चञ्चल नेत्रोंवालो ( दमयन्ति )! पृथ्वी का चन्द्र सुप्रसिद्ध यह ( 'मेधातिथि' राजा) तुम्हारे अधरामृतको पीकर उस द्वीपके परिधि बने हुए, इक्षुरसके जलके रसको नहीं चाहेगा। [ चकोर चन्द्रामृतका पान करता है, चन्द्र चकोरका पान नहीं करता; किन्तु प्रकृतमें चन्द्ररूप यह राजा चकोरनेत्री तुम्हारे अधरका पान करेगा यह चकोर के चकित होनेका कारण है। अमृतपान करनेवाले व्यक्तिको क्षुरसका पान करने के लिये इच्छुक नहीं होना उचित ही है ] / / 75 // सूरं न सौर इव नेन्दुमवेक्ष्य तस्मिन्नश्नाति यस्तदितरत्रिदशानभिक्षः। तस्यैन्दवस्य भवदास्यनिरीक्षयैव दशेऽनतोऽपि न भवत्ववकीर्णिभाव।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770