________________ एकादशः सर्गः। अरिषु निष्कृपः यः कृपाणः खङ्गः, तेन सनाथः सहितः, पाणिः यस्य ताहशस्य, अस्य राज्ञः, गुणानां गणं पाणिग्रहात् अनु विवाहानन्तरं, गृहाण जानीहि, तदा ज्ञास्यसि महिमानमस्येत्यर्थः, यद्वा-पाणिग्रहात् पाणिग्रहणं कृत्वा, अमुं नृपं वरीस्वा इत्यर्थः, अनुगृहाण समाद्रियस्व, गुणेषु आदरं प्रदर्शयेत्यर्थः // 66 // . विष्णुके वामभागको पवित्र करनेवाली (वामभागमें निवास करने वाली) वाक (सरस्वती) देवी ( कुल-सील-सौन्दर्य आदि गुणों के या सरस्वतीकी सखी होनेके) गौरवसे मनोश इस ( दमयन्ती ) से फिर बोली-शत्रुओं में निर्दय एवं हाथ में तलवार लिये हुए ( अथवाशत्रुओं में निर्दय तलवारको हाथ में लिये हुए.) इस ( राजा ) के विवाहसे अपने ( या इस राजाके ) गुण-समूहों को अनुगृहीत करो ( या बादमें अर्थात् विवाह करने के बादमें ग्रहण ( मालूम ) करो। [ इस राजाके साथ विवाह करोगी तब अत्यन्त निकट सम्बन्ध होने के बाद यह कितना गुणवान् है यह जानोगी अथवा–यदि तुम इसके साथ विवाह नहीं करोगी तो इसके गुण व्यर्थ हो जायेंगे, अतः इसके साथ विवाह करके इसके गुणोंको अनुगृहीत करो। अथवा-इसके साथ विवाह नहीं करोगी तो तुम्हारे गुण व्यर्थ हो जायेंगे, अतः इसके साथ विवाह करके अपने गुणोंको अनुगृहीत करो // 66 // द्वीपस्य शाल्मल इति प्रथितस्य नाथः पाथोधिना वलयितस्य सुराम्बुनाऽयम्। अस्मिन् वपुष्मति न विस्मयसे गुणाब्धौ . रक्ता तिलप्रसवनासिकि ! नासि किं वा ? / / 67 // .. द्वीपस्येति / हे तिलप्रसवनासिकि ! तिलकुसुमसमाननासिके ! 'नासिकोदरोष्ठ-' इत्यादिना विकल्पात् , ङीष , अयं राजा, सुरा मद्यमेव, अम्ब यस्य ताशेन, पाथोधिना समुद्रेण, सुरासमुद्रेणेत्यर्थः, वलयितस्य सातवलयस्य, वेष्टितस्येत्यर्थः, शाल्मल इति प्रथितस्य द्वोपस्य नाथः स्वामी; गुणान्धी अस्मिन् वपुष्मति वपुष्मदाख्ये, अथ च प्रशस्तशरीरशालिनि राज्ञि, किं न विस्मयसे ? अस्य गुणेषु किम् आश्चर्यान्विता न भवसि ? रक्ता वा अनुरक्ता च, किं नासि ? उभयमप्युचितमिवेत्यर्थः // 6 // हे तिलपुष्पके समान नाकवाली ( दमयन्ति )! यह मदिराख्य जलवाले समुद्रसे घिरे हुए 'शाल्मल' इस नामसे प्रसिद्ध द्वीपका स्वामी है। गुणों के समुद्र इस वपुष्मान् ( श्रेष्ठ शरीरवाले पक्षा०–'वपुष्मान्' नामवाले ) इस राजामें आश्चर्थित नहीं होता हो ? और अनुरक्त नहीं होती हो क्या ? / [ शरीरधारी गुणी-समुद्रको देखकर आश्चर्यित होना चाहिये तथा उसमें अनुरक्त भी होना चाहिये सुरासमुद्रका वर्णनकर सरस्वतीदेवीने इस राजाके वरण करने में असम्मति प्रकट की है ] // 67 // 42 नै०