Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 716
________________ एकादशः सर्गः। वधू ( दमयन्ती) को ले चलनेवाले जन (शिविकावाहक ) हृदयके भावको जानने के कारण ही चन्द्रमुखी इस ( दमयन्ती) को दूसरे राजाके सामने ले गये। दूसरे की अपेक्षासे रहित कार्यमें ( अथवा-दूसरेकी अपेक्षासे रहित कार्यवाले) भृश्य-समूहके रहनेपर स्वामीको बोलने अर्थात् आदेश देनेका अवसर नहीं आता है / [ स्वामीके आदेश न देनेपर ही उनका हृद्गत भाव समझनेवाले भृत्य कार्यको पूरा कर देते हैं अत एव उन्हें आदेश देनेका अवसर नहीं आता ] // 34 // ऊचे पुनर्भगवती नृपमन्यमस्यै निर्दिश्य दृश्यतमतावमताश्विनेयम् / आलोक्यतामयमये!कुलशीलशालीशालीनतानतमुदस्य निजास्यबिम्बम्।। उचे इति / भगवती भारती, पुनः भूयः, दृश्यतमतया दर्शनीयतमत्वेन, सौन्दर्यातिशयेन इति यावत् , अवमतौ अवधीरितो, आश्विनेयौ अश्विनीकुमारी येन तम्, अन्यं नृपम् अस्यै भैम्यै निर्दिश्य हस्तेन प्रदश्य, अये ! भैमि, कुलेन शीलेन सद्वृत्तेन च, शालते इति तच्छाली, अयं नृपः, शालीनतया लज्जया, 'शालीनकौपीने अष्टाकार्ययोः' इति ख-प्रत्ययान्तो निपातः, नतं निजास्यबिम्ब निजमुखमण्डलम्, उदस्य उन्नमय्य, आलोक्यताम् इत्यूचे उक्तवती, ब्रतेः कर्तरि लिटि तङ, लजा परित्यज्य अयं दृश्यताम् इति भावः // 35 // इस ( 'सवन' राजाकों वरण नहीं करने ) के बाद भगवती ( सरस्वती देवी ने ) अतिशय सौन्दर्यसे अश्विनीकुमारोंको तिरस्कृत किये हुए अर्थात् अश्विनीकुमारोंसे भी अधिक सुन्दर दूसरे राजाको इस ( दमयन्ती ) के लिये दिखाकर कहा-हे दमयन्ति ! लज्जासे नम्र अपने मुखबिम्बको उठाकर कुल तथा सदाचारसे शोभमान इस राजाको देखो // 35 // एतत्पुरःपठदपश्रमवन्दिवृन्दवाग्डम्बरैरनवकाशतरेऽम्बरेऽस्मिन् / उत्पत्तुमस्ति पदमेव न मत्पदानामर्थोऽपिनार्थपुनरुक्तिषु पातुकानाम्।। एतदिति / एतस्य पुरः अग्रे, पठताम् अपश्रमवन्दिनां यथार्थगुणवर्णने श्रमः शून्यानां स्तावकानां, वृन्दस्य वाग्डम्बरैः वागाटोपैः, अनवकाशतरे अत्यन्तनिरव. काशे, अस्मिन् अम्बरे अन्तरिक्ष, मत्पदानां मद्वाक्यानां, 'पदं शब्दे च वाक्ये च' इति विश्वः, उत्पत्तमेव पदम् अवकाशः, नास्तीत्यतिशयोक्तिः, आकाशगुणः शब्द इति तार्किकाः; कथश्चिदुत्पत्तौ अपि अर्थपुनरुक्तिषु अभिधेयपौनरुक्त्येषु, पातुकानां पतता, वन्दिवाक्यैः पुनरुक्तार्थानामित्यर्थः, 'लषपत-' इत्यादिना उकअप्रत्ययः, मत्पदानाम् अर्थोऽपि प्रयोजनमपि, नास्ति, गतार्थत्वादितिभावः; अस्य वन्दिकृताः स्तवाः यथार्थकतया मम अतीव सम्मताः, अतः एनं वृणीष्व इति तात्पर्यम् // 36 // इस (राजा ) के सामने स्तुति करते हुए अश्रान्त बन्दि-समूहके बचनाडम्बर ( वाग्विस्तार ) से निरवकाश इस आकाशमें मेरे वाक्यों ( अथवा-सुबन्त-तिङन्तरूप पदों पक्षा०-मेरे पैरों) के उत्पन्न होने (पक्षा०-ठहरने ) का स्थान ही नहीं है, ( और कश्चित्

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