________________ एकादशः सर्गः। 645 यत्तचित्रम् !! हंसानां क्षीरनीरविवेकस्य जातिधर्मत्वेऽपि तद्विवेकामावो विरुद्ध इति भावः / स चाविवेकः कीर्तेर्धावल्येन तव्रत्यजलानामपि क्षीरसदृशशुस्वात् धावश्यगुणतो न स्वरूपत इति विरोधसमाधानाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः, तथा विशदिमाs. द्वयमादिशन्तीत्यनेन सामान्यालङ्कारः, 'सामान्यं गुणसाम्येन यत्र वस्वन्तरकता' इति तस्य विशेषणगत्या क्षीरनीराविवेकहेतुत्वात् पदार्थहेतुकं कायलिज, पूर्वार्द्ध च श्वैत्यभुवनचारित्वराजहंसप्रियतमात्वाख्याश्लिष्टौ श्लिष्टप्रस्तुतकीर्तिविशेषणसाम्यादप्रस्तुतराजहंसप्रतीतेः श्लेषसङ्कीर्णाऽर्थसमासोक्तिरित्यतैस्त्रिभिः सहालाकि भावेन पूर्वोत्तस्य विरोधाभासस्य सङ्करः // 3 // इस राजहंस ( राजश्रष्ठ 'सवन' ) की अत्यन्त अभीष्ट कीर्ति श्वेतताको क्यों नहीं प्राप्त होवे अर्थात् श्वेत क्यों नहीं होवे और संसारों में क्यों नहीं जावे ? अर्थात् श्वेत मी होवे तथा संसारों में भी जावे (अथवा "कीर्ति श्वेत क्यों नहीं होवे और संसारोंमें क्यों नहीं जावे ?) पक्षा-इस राजहंस अर्थात् श्रेष्ठ मरालकी प्रियतमा हंसी श्वेतता..... और भुवनों (जल ) में क्यों नहीं घूमे,......) किन्तु विशदिमा (श्वेतता=सपेदीके अद्वैतको करती हुई अर्थात् श्वेत बनाती हुई दूध तथा पानीको परस्परमें जो अलग नहीं करती है, यह आश्चर्य है / [ राजहंसप्रिया हंसीका श्वेत होना तथा भुवन (जल) में घूमना एवं राजश्रष्ठ इस 'सवन' की अभीष्टतम कीर्तिका श्वेत होना एवं भुवनों (समस्त लोको ) में घूमना तो समान है; किन्तु एकमें मिले हुए श्वेत दूध-पानीको अलग कर देती है और इस राजश्रेष्ठ 'सवन' की कीर्ति दोनोंको श्वेत बनाती हुई दूध-पानीको अलग नहीं करती यह आश्चर्य है ] // 31 // शूरेऽपि सूरिपरिषत्प्रथमार्चितेऽपिशृङ्गारभङ्गिमधुरेऽपि कलाकरेऽपि / तस्मिन्नवद्यमियमाप तदेव नाम यत् कोमलं न किल तस्य नलेति नाम।। शूरे इति / इयं दमयन्ती, शूरे वीरेऽपि, सूरिपरिषत्सु विद्वत्सभासु, प्रथमार्चिते अग्रपूज्येऽपि, शृङ्गारभङ्गिमधुरे शृङ्गारविलासकान्तेऽपि, कलाकरे सकलविद्यानिधानेऽपि, तस्मिन् सवनाख्ये राज्ञि, कोमलं कर्णामृतं, किल प्रसिद्धं, नलेति नामधेयं, तस्य सवनस्य, न नास्ति, इति यत् , तदेव नलनामराहित्यमेव, अवधं दूषणम्, आप नाम जग्राह खल्वित्यर्थः; अनलत्वातिरिक्तमरुचिकारणं कशिदपि नाभूदिति भावः / नलानुरागात् हि एवं गुणवन्तमपि तं नृपतिं न वरणयोग्यत्वेन स्वीकृतवती इति निष्कर्षः // 32 // इस ( दमयन्ती) ने शूर भी, विद्वानों की समामें सर्वप्रथम आवृत भी, शृङ्गार-रचनासे मनोहर भी और कलाकार (गीतादि 64 कलाओं के विद्वान् ) भी उस ('सवन नामक राजा) में एक वही दोष पाया कि उनका मधुर 'नल' नाम नहीं था। [शूरता, शृङ्गारप्रियता तथा कलापाण्डित्य गुणोंके रहनेपर भी 'नल' नहीं होनेसे दमयन्तीने उस 'सवन' राजाको वरण नहीं किया ] // 32 //