Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 712
________________ एकादशः सर्गः। 643 तूपवर्त्तनम्' इत्यमरः, आरमनैव स्वयमेव, भौमं भूमिभवं, स्वःस्वर्गः, अतः एतदीयां श्रियं स्वाराज्यं स्वर्गराज्य, 'रोरि' इति रेफलोपे'ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोsगः' इति दीर्घः, बार्जयसि ? इति काकु, अर्जयस्येवेत्यर्थः, एतद्गृहे शचीविलासं शचीसौभाग्यं गृहाण स्वीकुरु / एतद्भरेव स्वर्गः, एतद्राज्यमेव स्वाराज्यम, अयमेवेन्द्रः, त्वमेवे-- न्द्राणी भवेति रूपकालङ्कारः // 28 // __ हे आवर्त ( नाभिकी नीचेवाली रोमावलीका दक्षिण भागमें 'घुमाव, पाठा०-जलका चकोह ) के सहित होनेसे आश्चर्यकारक नाभिरूप कूपवाली (गम्भीर नाभिवाली दमयन्ती) इस राजाका देश साक्षात् भूमिष्ठ ( भूमिपर स्थित ) स्वर्ग है, इस ( राजा या देश) की स्वर्ग-राज्य रूप लक्ष्मीको नहीं प्राप्त करती हो ? अर्थात् प्राप्त करो / इसके घर में इन्द्राणीके विलासको ग्रहण करो। [ कूपमें जलके चकोहका होना आश्चर्यजनक होनेसे 'अद्भुत' पदकी चरितार्थता है / इस राजाका देश भूस्वर्ग, सम्पत्ति स्वर्गराज्य, यह राजा इन्द्र है, और तुम इसे वरण कर इन्द्राणी बनो] // 28 // देवः स्वयं वसति तत्र किल स्वयम्भूर्यग्रोधमण्डलतले हिमशीतले यः। स त्वां विलोक्य निजशिल्पमनन्यकल्पं सर्वेषु कारुषु करोतु करेण दर्पम्।। देव इति / तत्र पुष्करद्वीपे, हिमवच्छीतले न्यग्रोधः वटवृक्षः, 'न्यग्रोधो बहुपा. इटः' इत्यमरः, तस्य मण्डले मण्डलाकारे तले अधस्तले, स्वयम्भूः यः देवः ब्रह्मा, स्वयं साक्षात् , वसति किल खलु, स देवः ईषदसमाप्तमन्यदन्यकल्पम् अन्यसदृशं; तन्न भवतीत्यनन्यकल्पम् अनन्यसाधारणम्, 'ईषदसमाप्तौ कल्पप' प्रत्ययः, निज. शिल्पं स्वनिर्माणं, स्वां विलोक्य स्वल्लक्षणं निजशिल्पकायं दृष्ट्वेत्यर्थः, सर्वेषु कारुषु. शिल्पिषु मध्ये, करेण करप्रदर्शनेन, द करोतु गर्व करोतु, मदन्यशिल्पकतरेवं रूपनिर्माणदतो हस्तो नास्तीति स्वहस्तं प्रदर्श्य गर्व करिष्यतीत्यर्थः, स्रष्टः कीतिकरं ते रूपनिर्माणशिल्पमिति भावः // 29 // ___ वहां ( 'पुष्कर' द्वीपमें ) बर्फके समान शीतल ववृक्षके नीचे साक्षात् 'ब्रह्मदेव' रहते हैं; वे अनन्य साधारण अपनी कारीगरीरूप तुम्हें देखकर हाथसे अन्य शिल्पियों (कारीगरों) में अमिमान करें। [ मैंने अपने हाथसे इस दमयन्तीको सुन्दरी बनाकर जैसी उत्तम कारीगरीको दिखलायी, वैसी कारीगरी आजतक किसी दूसरे कारीगरने नहीं दिखलायी, ऐसा अपने हाथकी कारीगरीके विषय में अभिमान करें] // 29 // न्यग्रोधनादिव दिवः पतदातपादेर्यग्रोधमात्मभरधारमिवावरोहैः / तं तस्य पाकिफलनीलदलद्युतिभ्यां द्वीपस्य पश्य शिस्निपत्रजमातपत्रम्।। ___ न्यग्रोधनादिति / दिवः अन्तरिक्षात् , पततः आपततः, आतपादेः, आदिशब्दात् वर्षादेश्व, न्यक निम्नीभूय, अधः स्थित्वा इत्यर्थः, रोधनानिवारणादिव, न्यग्रोधं न्यग्रोधशब्दवाच्यम्, इति पचायच, उत्प्रेक्षेयम्, उत्तरार्द्धवच्यमाणातपत्रत्वोस्प्रेक्षोप..

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