Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 713
________________ 644 नैषधमहाकाव्यम् / योगिनी; तथा अवरोहन्तीत्यवरोहाः शाखाभ्यः अधोलम्बिन्यःशिफाः,शाखामूलानी. त्यर्थः, 'शाखाशिफाऽवरोहः स्यात्' इत्यमरः, तैः, अवरोहरूपैरवष्टम्भरित्यर्थः, आत्मनः स्वस्थ, भरं धरतीति आत्मभरधारः, तमिव भूमिस्पृष्टेरवरोहरूपैरवलम्बनैः आत्मा. नमवष्टभ्य इव स्थितमित्युत्प्रेक्षा, धरतेः कर्मण्यणप्रत्ययः, किञ्च पाकः एषामस्तीति 'पाकिनां पक्कानां, फलानां नीलदलानां नीलपलाशानाच, यतिभ्यां रक्तश्यामकान्ति. भ्यां निमित्तेन, तस्य द्वीपस्य पुष्करद्वीपस्य सम्बन्धि, शिखिपत्र मयूरपिच्छोद्भवम्, आतपत्रं तद्वत् स्थितम्, इति निमित्तगुणजातिस्वरूपोत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्म्या, अस्याश्व प्रथमोस्प्रेक्षयाऽङ्गाङ्गिभावेन सजातीयसकरः, द्वितीयया सजातीयसंसृष्टिः -तं प्रसिद्धं न्यग्रोधवृत्तं, पश्य; एतद्राजवरणादेवंविधोऽद्भुतदर्शनोत्सवलाभो भविव्यतीति भावः // 30 // ___ आकाशसे गिरते ( नीचे आते ) हुए धूप आदि ( वर्षा आदि ) के नीचे स्थित होकर रोकने से ( या नीचे आनेसे रोकनेसे अर्थात् धूप-वर्षा आदिको नीचे नहीं आने देनेसे) 'न्यग्रोध' अर्थात् वटवृक्ष, वरोहों ( वटवृक्षकी ऊपरवाली शाखाओंसे नीचेकी ओर लटककर भूमि तक पहुँची हुई स्तम्माकार डालियों ) से अपने भारको धारण करनेवाला है, उस * ('पुष्कर') द्वीपके, पके हुए फलों तथा नीले ( अत्यन्त श्याम वर्ण) पत्ते की शोभासे मोरके पलोंसे बने छत्ररूप उस ( वटवृक्ष ) को देखो। वह वृक्ष ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो उसने ऊपर से नीचे तक लटकी हुई बरोहोंसे अपने भारको अपने ऊपर स्वयं सम्भाल रक्खा हो, तथा पके हुए फलों एवं अत्यन्त श्यामवर्ण पत्तोंसे मयूर के पंखों का बनाया गया छाता हो और वह वटवृक्ष इतना सघन है कि उसके नीचे धूप या वर्षा आदि नहीं आती अत एव उसका 'न्यग्रोध' ('न्यक् रुणद्धि' अर्थात् नीचे आनेसे धूप आदिको रोकनेवाला, अथवा नीचे स्थित होकर धूप आदिको रोकनेवाला ) नाम सार्थक है अर्थात् वह वटवृक्ष बहुत सधन शीतल छाया वाला है, ऐसे विचित्र उस वटवृक्षको इस राजाकी पत्नो बनकर देखो ] // 30 // न श्वेततां? चरतु वा भुवनेषु राजहंसस्य न प्रियतमा कथमस्य कोर्तिः। चित्रन्तु तद्विशदिमाऽद्वयमादिशन्ती क्षीरञ्च नाम्बु च मिथः पृथगातनोति॥ नेति / राजहंसस्य नृपश्रेष्ठस्य, अस्य सवनस्य, प्रियतमा इष्टतमा, कीर्तिः, अन्यत्र-राजहंसस्य कलहंसस्य, 'राजहंसो नृपश्रेष्ठे कादम्बकलहंसयोः' इति विश्वः, कीर्तिः शुभ्रत्वात् कीर्तिरूपिणी, प्रियतमा तत्कान्ता वरटा, कथं न श्वेतताम् / कथं न धवलीभवतु ? अपि तु श्वेतैव भवतु, 'विता वर्णे' इति द्युतादौ पठ्यते, तस्मालोट भुवनेषु लोकेषु सलिलेषु च, 'भुवनं सलिलं लोकः' इति विश्वः, कथं वा न चरतु ? तु किन्तु, विशदिमाऽदयं धावल्याद्वैतम्, आदिशन्ती जनयन्ती, कीर्तिरिति शेषः, स्वप्रभयेति भावः, क्षीरच अम्बु च मिथोऽन्योऽन्यं पृथग्विभक्तं, नातनोति न करोति, इति

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