________________ 566 नैषधमहाकाव्यम् / तथा उत्तर मीमांसा-ये दो भेद हैं, वे ब्रह्मकाण्ड तथा कर्मकाण्ड कही जाती हैं। यह मीमांसा वेदस्वरूपा ही है, अतः वेदने ही अपना ब्रह्मकाण्ड तथा कर्मकाण्डरूप दो विभागकर स्थित मीमांसासे परमतखण्डन करनेवाला एवं पुष्ट ( दूसरेसे अखण्डनीय (पक्षा०-उत्तम वस्त्राच्छादित होनेसे सुन्दर एवं मांसल ) सरस्वती देवीकी दोनों जवाओं को बनाया है ] 81 // उद्देशपर्वण्यपि लक्षणेऽपि द्विधोदितैः षोडशभिः पदार्थैः / आन्वीक्षिकी यद्दशनद्विमाली तां मुक्तिकामाकलितां प्रतीमः // 82 // उद्देशेति / यस्याः सरस्वत्याः, दशनानां द्वयोर्मालयोः समाहारो द्विमाली दन्तपतिद्धयी, 'आबन्तो वा' इति स्त्रीत्वे 'द्विगोः' इति ङीप, तामेव आकलितां गुम्फितां, मुक्तैव मुक्तिका, मुक्ताशब्दात् स्वार्थ कप्रत्ययेन 'केऽणः' इति हस्वे तस्य 'भाषितपुंस्काच' इति कात् पूर्वस्येत्वम् , तां मुक्तावलीम् इत्यर्थः, उद्देशो नामतः कीर्तनंतस्य पर्वणि अवसरेऽपि, समानासमानजातीयव्यवच्छेदो लक्षणं तस्मिन्नपि, द्विधो. दितैः उद्देशतया लक्षणतया च निर्दिष्टेरित्यर्थः, अन्यत्र-उद्देशपर्वणि उद्देश्यपर्वदिवसे, तथा लक्षणे सामुद्रिकलक्षणे च, द्विधोदितैः द्वैगुण्येनोक्तैः, अत एव द्वात्रिंशत्संख्यकैरित्यर्थः, उभयषोडशदशनत्वस्य भाग्यलक्षणत्वादिति भावः; षोडशभिः पदार्थैः प्रमाणादिनिग्रहस्थानान्तैः उपलक्षिताम; मुक्ति मोक्षं कामयन्ते इति मुक्ति कामाः मुमुक्षवः, 'शीलकामिभच्याचारेभ्यो णः' इति णप्रत्ययः तैराकलिताम् अभ्यस्तां, प्रमाणादिसूत्रेण एतेषां तत्त्वज्ञानात् निःश्रेयसाधिगम इत्युक्तत्वादिति भावः; तां प्रसिद्धाम् , अनु पश्चात , वेदश्रवणानन्तरमित्यर्थः, ईक्षा परीक्षणमित्यन्वीक्षा, सा प्रयोजनमस्या इत्यान्वीक्षिकी तर्कविद्या 'प्रयोजनम्' इति ठक, तां प्रतीमःजानीमः,प्रतिपूर्वादिणो लट,द्विरावृत्तषोडशपदार्था द्वात्रिंशहन्तपतियुगलत्वेन परिणता इत्युत्प्रेक्षार्थः। प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोरभेदोपचारत्वात् आन्वीक्षिक्येव तथा परिणतेत्युक्तं दशनद्विमालीमेवाकलितां मुक्तिकामिति श्लिष्टपदोपात्तेन रूपकत्वे. नोत्प्रेक्षायाः सङ्करः // 82 // नाम-निर्देश तथा लक्षण-निर्देश ( पक्षा०-सामुद्रिक शास्त्रोक्त लक्षण निर्देश ) के अवसर में दो बार कहे गये सोलह पदार्थों से उपलक्षित, जिस सरस्वती देवीके दाँत की दोनों पंक्तियोंको ( हम ) मुक्ति चाहनेवालोंसे सेवित ( पक्षा०-गुयी हुई मोती) तक विद्या अर्थात् न्यायविद्या समझते हैं। [न्याय शास्त्र के अनुसार-'प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, बाद, जल्प, बितण्डा, हेत्वामास, छल, जाति और निग्रह स्थान ये सोलह पदार्थ हैं, इनको नाम तथा लक्षण क्रमसे बार-बार कहनेपर ये बत्तीस हो जाते हैं, वे ही बत्तीस पदार्थ सरस्वती देवी के दाँतोंको दोनों पंक्तियां हैं, जिन्हें मुमुक्षु लोग ग्रहण करते हैं या जो गुथी हुई मोतियों के समान हैं] // 82 / /