Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 703
________________ 634 नैषधमहाकाव्यम् / बन्द होनेवाले ( पाठा-होते हुए ) दलों वाले दो कमलों के भ्रमको उत्पन्न करनेवाली अञ्जलिको अपने मस्तकपर करके अर्थात् मस्तकपर अञ्जलि रखकर अपराध करनेके भयसे चञ्चलतापूर्वक देखती हुई दमयन्तीको देवोंने कृपाकर अन्यत्र जानेकी अनुमति दे दी। [अन्य भी कोई दयालु व्यक्ति हाथ जोड़कर मस्तकपर रखने तथा समय देखने पर उसकी इच्छानुसार कार्य करनेकी अनुमति दे देता है, अतः दयालु देवोंका वैसा करना उनके अनुरूप हो हुआ। मुखरूपी चन्द्र के समीप हस्तरूपी कमलदलका बन्द होना उचित ही है। दमयन्ती उन देवोंको छोड़कर आगे बढ़ी ] // 11 // तत्तद्विरागमुदितं शिविकाऽधरस्थाःसाक्षाद्विदुः स्म न मनागपि यानधुर्याः। आसन्ननायकविषण्णमुखानुमेयभैमीविरक्तचरितानुमया' नु जशुः / 12 / / तत्तदिति / शिविकायाः यानविशेषस्य, अधरस्था अधःस्थिताः, यानस्य धुर्याः धूर्वहाः, शिविकावाहिनः इत्यर्थः, शिवभागवतवत् समासः 'धुरो यडढको' इति यत्-प्रत्ययः उदितम् उत्पन्न, तत्तत् विरागं तस्याः भैम्यास्तेषु तेषु नायकेषु विषये विरागम् अपरागं, मनाक ईषदपि, साक्षात् प्रत्यक्षं, न विदुःन विन्दन्ति स्म 'विदो लटो वा' इति लिट 'झेर्जुस्' इति जुसादेशः, 'लट स्मे' इति भूते लद किन्तु आसमानां पुरोवर्तिनां, नायकानां विषण्णैः ग्लानियुक्तः, मुखैरनुमेयानां भैम्या विरक्तचरिताना प्रत्याख्यानसूचकनमस्कारादिरूपचेष्टितानाम्, अनुमया अनुमानेन, 'आतश्वोपसर्गे' इत्यङ, नु एव, जजुः अज्ञासिषुः, तत्तद्विरागमिति शेषः, नायकमुख. चेष्टया भैमीवैराग्यमनुमितवन्त इत्यर्थः // 12 // पालकी के नीचे रहनेवाले ( ढोनेवाले ) कहार उन-उन देवों के बिषयमें उत्पन्न हुई (दमयन्तीकी) विरक्तिको बिलकुल नहीं जाने ( दमयन्तीके पालकीमें ऊपर बैठनेसे तथा कहारों के नीचे रहनेसे दमयन्ती को नहीं देख सकने के कारण उसके भावको नहीं जानना उचित ही हैं ), किन्तु समीपस्थ नायकों (देवों) के उदासीन मुखके द्वारा अनुमान करने योग्य दमयन्तीके स्नेहाभावके आचरणों ( नमस्कार आदि ) से अनुमान करनेवाले के (पालकी ढोनेवाले कहार ) निश्चय ही जान गये ( पाठा०-बाद में आगे बड़े)। [पार्श्वस्थ देवों के मलिन मुखसे दमयन्तीके स्नेहाभावका अनुमान कर वे देव 'आगे चलो' ऐसी आज्ञा नहीं पानेपर भी आगे बढ़ गये, इससे उनकी चतुरता सूचित होती है ] // 12 // रक्षास्वरक्षणमवेक्ष्य निजं निवृत्तो विद्याधरेष्वधरतां वपुषैव भैम्याः / गन्धर्वसंसदिन गन्धमपि स्वरस्य तस्या विमृश्य विमुखोऽजनि यानिवर्गः। रक्षःस्विति / यानं वाहनमस्तीति यानिनः शिविकावाहिनः, तेषां वर्गः समूहः, रतःसु राक्षसेषु, निजं स्वकीयम्, अरक्षणं विनाशनम्, अवेक्ष्य विविच्य; तेषां हिंना १.-मया तु जग्मुः' '-ऽनुजग्मुः' इति वा पाठान्तरम् /

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