Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 708
________________ एकादशः सर्गः। 631 पुलकञ्च वीक्ष्य सजाता सात्त्विकविकारधीः शृङ्गारसात्त्विकभ्रमबुद्धिः येषां तान् , स्वभृत्यान् विलक्षो भैमीभावज्ञानलजितः, उरगाधिपतिः वासुकिः, नृत्यात् आनन्द नर्तनात , न्यषेधत् न्यवारयत् , स्वस्वामिवैलच्यात् भैमीवैराग्यप्रतीतेस्ते खिमा इत्यर्थः। अत्र भृत्यानां भैमीभयसात्विकेषु शृङ्गारसारिखकभ्रान्त्याभ्रान्तिमदलकारः। 'स्तम्भप्रलयरोमाञ्चा:स्वेदो वैवर्ण्यवेपथू। अश्रुवस्वर्यमित्यष्टौ सात्विकाःपरिकीर्तिताः इस ( सरस्वती देवीके ऐसा (11 / 17-20) कहने के बाद उस ( वासुकि) के स्फुरित फणाओंको देखनेसे डरी हुई उस ( दमयन्ती ) के कम्पन तथा बादमें रोमाञ्चको देखकर ( दमयन्ती में वासुकिके प्रति स्नेह-सूचक) सात्त्विक विकारको समझनेवाले ( अत एव हर्षसे ) नृत्य करते हुए अपने भृत्योंको लज्जित वासुकिने मना किया / [दमयन्ती वासुकिके स्फुरित होते हुए फणाओंको देख डरकर कम्पिता हो गयी और बाद में तत्काल ही रोमाञ्चित भी हो गयी, ये दोनों कार्य भयजन्य थे, किन्तु वासुकिके भृत्योने समझा कि हमारे स्वामी में अनुरक्त होनेसे दमयन्तीको काम तथा रोमाञ्च नामक सात्त्विक भाव हो गये हैं, अत एव यह मेरे स्वामीको अवश्य वरण करेगी, और ऐसा समझकर वे हर्षित हो नाचने लगे, यह देख दमयन्ती की विरक्ति को ठीक-ठीक समझने तथा अपने भृत्यों के उक्त कार्यसे लज्जित वासुकिने उन्हें झट मना कर दिया ] // 21 // तहशिभिःस्ववरणे फणिभिनिराशैःनिःश्वस्य तत् किमपि सृष्टमनात्मनीनम्। यत्तान् प्रयातुमनसोऽपि विमानवाहा हा हा ! प्रतीपपवनाशकुनान्न जग्मुः।। / तदिति / तद्दर्शिभिः वासुकिवृत्तान्तसाक्षात्कारिभिः, अत एव स्ववरणे निराशैः कैमुत्यपराहतैरित्यर्थः, फणिभिः अन्यैः कर्कोटकादिनागैः, निःश्वस्य निःश्वासं कृत्वा, तत् निःश्वसितरूपं, किमपि अवाच्यम् , आत्मने हितम् आत्मनीनम् 'आत्मविश्व महाननर्थहेतुराचरित इत्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मानिःश्वासकारणात् , तान् फणिनः प्रति, प्रयातुमनसः गन्तुकामा अपि, विमानं वहन्तीति विमानवाहाः दमयन्तीशिविकावाहिनः, कर्मण्यण , प्रतीपपवनः प्रतिकूलवायुः एव, यत् अशकुनम् अयात्रिकचिह्न तस्मात् हेतोः, न जग्मुः दूरत एव तान् परिजह्वरित्यर्थः, अत एव हा हेति खेदे // 22 // उसे ( स्वामी वासुकिके प्रति दमयन्ती के स्नेहाभावको ) देखनेवाले ( अत एव ) अपने को वरण करने में निराश ( हमारे स्वामी को ही जब दमयन्तीने वरण नहीं किया तो हमें क्यों करेगी' इस विचार से निराश ) सर्पो ( कर्कोटक आदि दूसरे सौ) ने (दुःखके कारण) लम्बा श्वास लेकर ( फुफकार छोड़कर ) कुछ अपने लिये अहितकारक कार्य किया, क्योंकि उधर ( उन साँकी ओर ) जानेके इच्छुक भी शिविकावाहक प्रतिकूल वायुरूप अशकुन होनेसे बहुत खेद है कि नहीं गये / ( संभव था कि यदि उन कर्कोटकादि सपौकी ओर

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