________________ 626 नैषधमहाकाव्यम् / नलादेश होकर ( नल का रूप धारण कर ) भी अपने कहे हुए वाक्यके मनोगत वास्तविक अर्थ को छिपाकर अन्यथा अर्थ कहना इन्द्रत्वावस्थामें रहने के समान दुष्ट भावको प्रकट करता है। अथवा-ना (मनुष्य ) नल एबं विद्वान् भी उस प्रकार अन्यथा अर्थ का स्थानी (इन्द्र पद ) के समान क्यों दुष्ट भाव धारण किया ? क्योंकि इन्द्र का यज्ञ-तप आदिमें विघ्न-डालनेसे दुष्ट स्वभाव होना तो कथञ्चित् उचित हो सकता है परन्तु मनुष्य नल एवं विद्वान् होकर भी कामके लिए इन्द्र के स्वभावको नहीं छोड़ना और अपनी बातको अन्यथा समझना उचित नहीं है / अथवा-विद्वान् भी इस इन्द्रने वैसा प्रसिद्ध व्याकरणकतो होते हुए भी 'ध' आदेश ('नहो धः' पा० सू० 8 / 2 / 34 से ) करके 'अल' प्रत्याहारसम्बन्धी कार्यमें 'स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ' (पा० सू० 111 / 56 ) से स्थानिवत् कार्यका निषेध होनेपर भी स्थानिवद्भाव नहीं किया क्या अर्थात् अवश्य ही किया। 'स्थानिवत्-' सूत्रसे, अलाश्रित कार्यमें स्थानिवद्भावका निषेध होने पर भी 'पथिममध्यभुक्षामात्' ( पा० सू० 61185 ) सूत्रसे अल करनेपर स्थानिवद्भावसे आये हुए हलत्वका आश्रयकर 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल' (पा० सू० 6 / 1 / 68) से सु लोप नहीं होता है, किन्तु उक्त महावैयाकरण इन्द्रने वहांपर मी स्थानिवद्भाव किया है, यह आश्चर्य है। अथवा-अपनेको नैषधादेश ( नलके स्थान पर ) करके कार्यके वास्ते वैसे विशिष्ट आकारवाला देवत्वको छोड़कर मनुष्य नल होते हुए इन्द्रने दुष्ट स्थानिवद्भावको क्यों धारण किया अर्थात देवभावको छोड़कर मनुष्यभाव क्यों ग्रहण किया यह आश्चर्य है ] / / इयमियमधिरथ्यं याति नेपथ्यमञ्ज विशति विशति वेदीमुर्वशी सेयमुाः / इति जनजनितैः सानन्दनादविजघ्ने नलहृदि परभैमीवर्णनाकर्णनाप्तिः // 137 // इयमियमिति / नेपथ्येन प्रसाधनेन, मञ्जः मनोज्ञा, उाः पृथिव्याः, उर्वशी भूतलोवंशी, सेयं दमयन्ती, इयम् इयमिति पुरोनिर्देशः, सम्भ्रमे द्विरुक्तिः अधिरथ्यं रथ्यायां, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः, याति रथ्यायां गच्छतीत्यर्थः। वेदी स्वयंवर. वेदिकां, विशति विशति इति एवं, जनैः दर्शकजनैः, जनितैः कृतः, सानन्दनादैः सहर्षघोषैः कत्तेभिः, नलहृदि परेषां समीपस्थजनानां, भैमीवर्णनस्य आकर्णनाप्तिः श्रवणसुखलाभः, विजघ्ने विहतः, दमयन्तीसन्दर्शनेन सम्भ्रान्तानां लोकानां कलरवेण भन्यजनकृता दमयन्तीरूपवर्णना नलेन न श्रुता इति भावः / मालिनी. वृत्तम् // 137 // यह दमयन्ती गली (स्वयंवरमण्डपके मार्ग) में जा रही है, पृथ्वीको उर्वशी यह स्वयंवरवेदीपर प्रविष्ट हो रही है ( अथवा-भूषण-मनोहारिणी तथा पृथ्वी की उर्वशी यह दमयन्ती गली में जा रही है तथा वेदीपर जा रही है। इस प्रकार मनुष्योंके कहे गये