Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 693
________________ 624 नैषधमहाकाव्यम् / अप्सरोविशेषोऽपि, मति कामति एतस्या अङ्गावि दृष्ट्वा मेनका अप्सरा अपि स्मय॑ते इति भावः, अथ च काऽपि तन्वी उपमानार्हा स्त्री, मे मतिं न क्रामति बुद्धिं नारोहति, अमर्यमयोचितार्थद्वयमाश्रित्यावादीदिति द्रष्टव्यम् / अत्र एकस्या भैम्या गौरीत्यादिरूपेणोल्लेखादुल्लेखालङ्कारः; 'नानाधर्मबलादेकं यदि नानेव गृह्यते। नानारूपसमुल्लेखात् स उल्लेख इति स्मृतः // ' इति लक्षणात् , स च श्लेपप्रतिभोत्थापित इति सङ्करः / एतावतैव कविनाऽपि श्लेषकलाविलासरित्युक्तम्, अस्य च ग्रहीतृभेदात् कारकभेदाच्चोत्थानादत्र स्मितानुकारकभेदादुत्थानमिति सङ्ग्रेपः॥१३४॥ यह ( दमयन्ती ) स्मितसे गौरी ( पार्वती या गौरी नामकी कोई अप्सरा, पक्षा०गौर वर्णवाली ) है, दृष्टि से हरिणी ( हरिणी नामकी अप्सरा, पक्षा०-मृगी) है, सुस्वर कण्ठकी कान्तिसे वीणावती ( वीणावती नामकी अप्सरा या सरस्वती, पक्षा-वीणावाली अर्थात् वीणाके समान मधुर कण्ठवाली ) है, शरीरकान्तिसे हेमा ( हेमा नामकी अप्सरा; पक्षा०–'हेम एव' पदच्छेदसे सुवर्ण ( ही है, शेष अङ्गोंसे तन्वी अर्थात् कृशोदरी मेनका भी मेरी बुद्धिपर आक्रमण करती है [ पक्षा०-कोई तन्वी अर्थात् कृशोदरी स्त्री मेरी बुद्धिमें नहीं आती है ) / [ किसी एक अंशसे इस दमयन्तीकी समानता उन-उन अप्सराओं में होनेपर भी इसके सर्वांश पूर्ण होनेसे कोई भी अप्सरा इसकी समानता नहीं कर सकती है] | इति स्तुवानः सविधे नलेन विलोकितः शङ्कितमानसेन / व्याकृत्य मयोचितमर्थमुक्तेराखण्डलस्तस्य नुनोद शङ्काम् // 135 / / इतीति / इति स्तुवानः गौरीप्रभृत्यप्सर:स्वरूपत्वेन भैमी वर्णयन् , आखण्डल: इन्द्रः, सविधे समीपे, शङ्कितमानसेन अमयोंचितार्थोपन्यासात् नूनमयं मदीय. रूपधारी इन्द्र एवेति शङ्कितचित्तेन, नलेन विलोकितः सन् उक्तेः स्मितेनेत्यादिना वाक्यस्य, मयोचितमर्थ गौरीत्यादिशब्दानां सितत्वादिरूपं, व्याकृत्य व्याख्याय, तस्य नलस्य, शङ्कां नुनोद // 135 / / इस प्रकार ( 10 / 134 श्लेषपूर्ण वचनसे ) प्रशंसा करते हुए, शङ्कित चित्तवाले पार्श्ववर्ती नलसे देखे गये इन्द्रने मनुष्य के योग्य अर्थको. बतलाकर ( 'गौरी' इत्यादि शब्दोंका 'गौरवर्ण' आदि मानव-सङ्गत अर्थ बतलाकर) उस (नल) के सन्देहको दूर किया। [ 'यदि इस दमयन्तीको अप्सराके रूपमे यह वर्णन करता है, अत एव अवश्य मेरा रूप धारण कर आया हुआ इन्द्र है' इस प्रकार शङ्कित चित्तवाले नलकी शङ्काको मनुष्योचित दूसरे अर्थोको कहकर दूर किया ] // 135 / / स्वं नैषधादेशमहो ! विधाय कार्यस्य हेतोरपि नानलः सन् / किं स्थानिवद्भाबमधत्त दुष्टं ताकृतव्याकरणः पुनः सः 1 // 136 / / __ अत्र कविराह-स्वमिति / स इन्द्रः कार्यस्य भैमीलाभरूपकार्यस्य, हेतोर्निमित्तं, 'षष्ठी हेतुप्रयोगे' इति षष्ठी, स्वम् आत्मानं, नैषधस्त्र नलस्य, आदेशं नलात्मकादेश,

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