Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 676
________________ दशमः सर्गः। न्यासः एकस्या राजदृष्टेः क्रमेण भैमीदर्शनप्रतिबन्धकपुष्पवृष्टयाग्रनेकाधारसम्बन्धोस्थेन पर्यायेण सङ्करः // 101 // . पहले ( दमयन्तीके अतिशयित सौन्दर्यको देखकर सन्तुष्ट देवों द्वारा) आकाशसे को हुई पुष्पवृष्टियोंसे, इसके बाद ( उन पुष्पोंके गन्धसे आकृष्ट होकर ) आनेवाले भ्रमरोंसे और उन (भ्रमरोंके काटने ) के भयसे फेरे ( दूसरी ओर घुमाये ) हुए मुखसे राजसमूहके नहीं देखने दी गयी (दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ); खेद है कि दैव अभिलषितमें विघ्न करनेका प्रयत्न किया करता है // 101 // एतद्वरं स्यामिति राजकेन मनोरथातिथ्यमवापिताय / सखीमुखायोत्सृजतीमपा ङ्गात् कर्पूरकस्तूरिकयोः प्रवाहम् // 102 / / एतदिति / पुनः किम्भूताम् ? एतत् सखीमुखं, वरं स्याम् अस्माकम् एतन्मु. खत्वे सति भैमीदृष्टिलाभः सेत्स्यति अतो राजस्वापेक्षया अहं तदात्मको वरं भवेयं, 'प्रार्थनायां लिङ्' इति राजकेन राजसमूहेन, मनोरथस्य भातिथ्यम् अतिथित्वम् , अभिलाषविषयताम् इति भावः, ब्राह्मणादित्वात् ष्यप्रत्ययः। अवापिताय प्रापिताय, सखीमुखाय अपाङ्गात् नेत्रप्रान्तात् , कर्पूरस्य कस्तूरिकायाश्च स्वार्थे कः, 'केऽज इति ईकारस्य ह्रस्वः, प्रवाहं श्वेतकृष्णकान्तिप्रवाहम् , उत्सृजती प्रवर्तयन्ती, सखीमुखमेव कटाक्षः वीक्षमाणामित्यर्थः। 'आच्छीनद्योर्नुम्' इति विकल्पान्नुमभावः। दृष्टीनां सितासितत्वेन निर्देशः, अत एव विषयनिगरणेन विषयिमात्रोपनिबन्धात् भेदे अभेदरूपातिशयोक्तयलङ्कारः // 102 // __'मैं दमयन्तीकी सखीका श्रेष्ठ मुख बन जाऊँ' ऐसा राज-समूहके द्वारा मनोरथके अतिथित्वको प्राप्त कराये गये अर्थात् ऐसा चाहे गये सखीके मुखके लिए नेत्र-प्रान्तसे कपूर तथा कस्तूरीके प्रवाहको छोड़ती हुई अर्थात् उक्त प्रकारके सखी-मुखको देखती हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। [ दमयन्तीके सखियोंका मुख बने बिना मुझे दमयन्तीके कटाक्षावलोकनका सुख नहीं मिल सकता, अत एव 'मैं दमयन्तीकी सखीका मुख बन जाऊँ' ऐसी इच्छा राज-समूहने की, उस सखी-मुखको दमयन्ती श्वेत-नील कटाक्षसे देखती थी, ऐसी दमयन्तीको राजसमूहने देखा ] // 102 / / स्मितेच्छुदन्तच्छदकम्पकिश्चिदिगम्बरीभूतरदांशुवृन्दैः। आनन्दितोर्वीन्द्रमुखारविन्दैर्मदं नुदन्ती हृदि कौमुदीनाम् // 10 // स्मितेति / पुनः किम्भूताम् ? आनन्दितानि मां प्रतीयं प्रसन्नेति बुद्धया हृष्टानि अन्यत्र-विकसितानि; उर्वीन्द्रमुखारविन्दानि राजमुखरूपपद्मानि येस्तैः, अत एवं स्मितेच्छोः ईषद्धास्योदयुक्तयोः, दन्तच्छदयोः अधरौष्ठयोः, कम्पेन किचिदिगम्बरीभूतैः ईषत्प्रकाशीभूतः, यद्वा-दिशाम् अम्बरीभूतैः आग्छादनस्वरूपः, दिग्ग्यापिभिरित्यर्थः- रदांशूनां दन्तकान्तीनां, वृन्दैः कौमुदीनां हृदि, स्थितमिति शेषः, मदं

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