________________ 605 दशमः सर्गः। पीतावदातारुणनीलभासां देहोपलेपात् किरणैर्मणीनाम् / गोरोचनाचन्दनकुङ्कमैण-नाभीविलेपान् पुनरुक्तयन्तीम् // 98 // पीतेति / पुनः किम्भूताम् ? पीता गौराः, अवदाता:शुक्लाः, अरुणा रक्ताः, नीला: कृष्णाश्च, भासो दीप्तयो येषां तेषां, मणीनां किरणैः देहस्य शरीरस्य, उपलेपात् अनुलेपनात्, गोरोचनादिचतुष्टयलेपान् पुनरुक्तयन्तीं सावात् पुनरुक्तान् कुर्वतीम् / एणनाभिः कस्तूरी। दमयन्त्याः पीतादिमणिप्रभयागोरोचनाद्यनुलेपनानां विफलत्वं साधितमिति भावः / अत्र गोरोचनाद्यनुलेपचतुष्टयस्य यथासंख्यसम्बन्धेन पीतादिमणिकिरणकैतवकथनात् यथासंख्यसङ्कीर्णसामान्यालङ्कारः। लक्षणमुक्तम् // पीली, श्वेत, लाल तथा नीली कान्तियोंवाले रत्नों के किरणों से शरीर पर लेप होने के कारण अर्थात् दमयन्तीके शरीर के ऊपर उक्त चार रङ्गोवाले रत्नोंकी कान्ति पड़नेसे गोरोचन चन्दन, कुडम और कस्तूरीके विलेपनों ( अङ्गरागों) को पुनरुक्त करती ( दुहराती) हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) / [ यहांपर क्रमशः पीले रंगवाले पुखराजसे गोरोचनके, श्वेत रङ्गवाले स्फटिक या हीरेसे चन्दनके, लाल रगवाले माणिक्यसे कुङ्कुमके और नीले रङ्गवाले नीलमसे कस्तूरीके लेपको पुनरुक्त किया जाना समझना चाहिये ] // 98 // स्मरं प्रसूनेन शरासनेन जेतारमश्रद्दधती नलस्य / तस्मै स्वभूषादृषदंशुशिल्पं बलद्विषः कामुकमर्पयन्तीम् / / 99 // स्मरमिति / पुनः किम्भूताम् ? प्रसूनेन पुष्पमयेन, शरासनेन धनुषा, अति. कोमलेन पुष्पचापेन करणेन इत्यर्थः, नलस्य जेतारं जैन, स्मरम् अश्रद्दधतीं स्मरः पुष्पमयकोमलधनुषा नलं कथमपि जेतुं न शक्नुयादिति अविश्वसतीम्, अत एव तस्मै स्मराय, स्वभूषापदंशुभिः निजाभरणमणिकिरणः, निर्माणं यस्य तादृशं, तनिर्मितमित्यर्थः, बलद्विषः कामुकम् इन्द्रचापम्, अर्पयन्तीम्, इन्द्रधनुरिव नाना. वर्णा तस्या आभरणरत्नशोभेति भावः / वीरधौरेयः नलः पुष्पचापदुर्जय इति मत्वा नलजयाय स्वाभरणमणिकिरणकल्पितम् ऐन्द्रं धनुः द्रढीयस्तस्मै कन्दपाय ददाना. मिव स्थितामित्युत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगाद्गम्या // 99 // पुष्पमय बाणासे कामदेवको नलका विजय कर सकनेवाला नहीं मानती हुई, अत एव अपने भूषणके पत्थरों (रत्नों) के किरणोंसे बने हुए इन्द्रधनुषको अर्पण करती हुई ( दमयन्तीको राजसमूहने कटाक्षोंसे देखा)। [नल दुर्जेय योद्धा हैं, अत एव कोमलतम पुष्पमय बाणोंसे कामदेव उनको नहीं जीत सकेगा और इस कारण वे बिना कामवशीभूत हुए हमें नहीं प्राप्त हो सकेंगे, अत एव उनको जीतने के लिये दमयन्तीने अपने भूषणों में गड़े गये पत्थररूप रत्नोंकी किरणों से बने हुए होनेसे अत्यन्त दृढतम इन्द्रधनुष कामदेवके लिये समर्पण करती हुई-सी मालूम पड़ती है। दमयन्तीके भूषणों में जड़े गये रत्नोंकी कान्ति इन्द्रधनुषके समान रंग-बिरंगी थी) // 99 //