________________ 606. दशमः सर्गः। यस्यास्तां, निजमन्दहासजनितविस्मयकम्प्यमानचन्द्रिकाशिरकम्पचारुचामरचयवीज्यमानामित्यर्थः // 105 // / उस ( दमयन्ती ) के गौर वस्तुका सारभूत अर्थात् अत्यन्त गौरवर्ण स्मितसे आश्चर्यित चन्द्रकान्तिके (उस स्मितकी प्रशंसार्थ) शिरः कम्पनकी शोभाको दिखलाने के लिये स्वच्छतासे सुशोभित चामर-समूहरूप अनेक हंसियों द्वारा की गयी है लास्य-लीला (नृत्य-विशेष ) जिसकी ऐसी ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा ) [ अत्यन्त गौरवर्ण दमयन्ती-स्मितको देखकर चन्द्रिका उसकी प्रशंसाके लिये शिर हिला रही है, इस बातका अभिनय स्वच्छताभूषित चामरसमूहरूप हंसियों नृत्य-विशेषसे जिसकी कर रही हैं, ऐसी दमयन्तीको राजसमूहने देखा ] // 105 // तदनभोगावलिगायनीनां माये निरुक्तिक्रमकुण्ठितानाम् / स्वयं धृतामप्सरसां प्रसाद द्वियं हृदो मण्डनमर्पयन्तीम् / / 106 // तदङ्गेति / पुनः किम्भूताम् ? सैवाङ्गं कायार्थतया शरीरं यासां ताः तदनाः तद्विषया इत्यर्थः, 'शब्दादौ मूर्तिभिः ख्याती' इति लक्षणात्; तासां भोगावलीनां, प्रबन्धविशेषाणां, गायन्यः गायिकाः, कर्तरि ल्युट् , जीप, तासां, मध्ये गानमध्ये निरुक्तिक्रमेषु निष्कृष्टोचारणप्रकारेषु, कुण्ठितानां लुप्तप्रतिभानाम् , अप्सरसा स्वयं धृतां हृदः स्वान्तस्य वक्षसश्व, मण्डनम् अलङ्कारभूतां, हियं लज्जामेव, प्रसादं पारि. तोषिकम् , अर्पयन्तीं प्रयच्छन्ती, तदोषज्ञानेन ताः अपि हेलयन्तीमित्यर्थः, गायकेभ्यः स्वतवस्त्रालङ्कारादिकं प्रीत्याप्रयच्छन्तीम् इति भावः। तस्याः सौन्दर्यस्तुतिकरणासामर्थ्यादप्सरसोऽपि लज्जिता इति तात्पर्यम् / अत्र तु हीदानमेव तहानमि-- त्युत्प्रक्षा हिया अपि स्वयं धृतस्वादलङ्कारत्वात् तदायत्तत्वाच्चेति बोद्धव्यम् // 106 // उस ( दमयन्ती) के अङ्गोंकी भोगावली (चन्दन-कर्पूरादि) उसके प्रतिपादक ग्रन्थकी स्तुतिगायिकाओंके बीचमें निरुक्तिक्रममें कुण्ठित अर्थात् पूरा वर्णन करने में असमर्थ अप्सराओंके लिये स्वयं धारण को हुई खो-हृदयका भूषण लज्जाको प्रसाद देती हुई ( दमयन्तीको राज-समूहने कटाक्षोंसे देखा)। (दमयन्तीके शरीरके भोगावलीका वर्णन करती हुई मैनका आदि अप्सराएँ उसका पूर्णतया वर्णन नहीं कर सकी तो स्त्रीहृदयका भूषणभूत लज्जा-जिसे दमयन्तीने भी स्वयं स्त्री होनेसे धारण कर रखा था-को उन अप्सराओं के लिये प्रसादरूपमें दे रही थी, अर्थात् जिसके अङ्गोंकी भोगावली पूर्णतया वर्णन नहीं कर सकनेके कारण अप्सरा भी लज्जित होती थी, उस दमयन्तीको राजसमूहने देखा / लोकमें भी कोई स्तुतिपाठकोंके लिये अपने शरीरमें पहने हुए भूषणादिको पारितोषिक रूपमें देता है ] // 106 // तारा रदानां वदनस्य चन्द्रं रुचा कचानाञ्च नभो जयन्तीम् / आकण्ठमणोतियं मधूनि महीभृतः कस्य न भोजयन्तीम् ? // 107