________________ 560 नैषधमहाकाव्यम् / वर्णनीय (अथवा-मनुष्योंसे अवर्णनीय ) चरित्र तथा गोत्रवाला विचारकर दमयन्तीके विषयमें 'इन ( राजाओं) का किस प्रकार वर्णन किया जायेगा' इस कारण चिन्तित हुए / [इन स्वयंवर में आये हुए राजाओं के चरित्र तथा वंशका वर्णन मनुष्यों के द्वारा न हो सकनेसे ( अथवा-देवों के द्वारा ही हो सकने से ) इनके चरित्र तथा कुल-परम्पराको पूर्णतया दमयन्तीसे किस प्रकार कहा जायेगा और विना उसे पूर्णतया मालूम किये इनमेंसे किसीको कैसे वरण करने के लिये चुनेगी ? यह सोचकर राजा भीम बहुत खिन्न हुए ] // श्रद्धालुसङ्कल्पितकल्पनायां कल्पद्रुमस्याथ रथाङ्गपाणेः / तदाऽऽकुलोऽसौ कुलदैवतस्य स्मृति ततान क्षणमेकतानः // 69 / / श्रद्धाल्विति / अथ विषादानन्तरम् , आकुलः असौ भीमः, तदा श्रद्धालूनां भक्तानां, 'स्पृहिगृहि-'इत्यादिना आलुचप्रत्ययः, सङ्कल्पितकल्पनायाम् ईप्सितार्थसम्पादने, कल्पद्रुमस्य इच्छापूरकस्य, कुलदेवतस्य वंशपरम्परोपासितस्य, रथाङ्गपाणेः नारायणस्य, स्मृति स्मरणं, क्षणं व्याष्य एकतानः अनन्यवृत्तिः सन् , ततान, 'एकतानोऽनन्यवृत्तिः' इत्यमरः // 69 // उस समय व्याकुल उस (राजा भीम) ने श्रद्धालुके मनोरथकी सिद्धि में कल्पवृक्षरूप कुलदेव विष्णुका क्षणमात्र एकाग्रचित होकर स्मरण किया। [ सम्पूर्ण मनोरथको पूरा करनेवाले कुलदेव विष्णुके अतिरिक्त दूसरा कोई मेरी अभिलाषा पूरी नहीं करेगा, यह सोचकर विष्णुका एकाग्र मनसे स्मरण किया ] // 69 // तचिन्तनानन्तरमेव देवः सरस्वती सस्मितमाह स स्म / स्वयंवरे राजकगोत्रवृत्त-वक्त्रीमिह त्वां करवाणि वाणि!॥ 70 // तदिति / तस्य भीमस्य, चिन्तनानन्तरं स्मरणानन्तरमेव, स देवो हरिः, सर• स्वती सस्मितमाह स्म / 'लट स्मे' इति भूते लट , किमिति ? हे वाणि ! इह स्वयंवरे वृत्तानां चरित्राणाञ्च, वक्त्रीम् आख्यात्री, करवाणि, प्रैषार्थे लोट् , अहमिति शेषः // ____उन ( भीम ) के स्मरण करने के बाद ही देव (विष्णु भगवान् ) ने मुस्कराते हुए सरस्वतीसे कहा-'हे सरस्वति ! इस स्वयंवरमें तुमको मैं राजाओं के वंश तथा चरित्रको बतलानेवाली बनाता हूँ। [ राजाओंके कुल तथा चरित्रका वर्णन करने के लिये तुभ स्वयंवर में जावो ] // 70 // कुलश्च शीलञ्च बलश्च राज्ञां जानासि नानाभुवनागतानाम् / एषामतस्त्वं भव वावदूका मूकायितुं कः समयस्तवायम् ? // 71 // कुलमिति / हे वाणि! नानाभुवनागतानां राज्ञां कुलञ्च शीलञ्च बलञ्च जानासि, अतः कारणात् , स्वम् एषां वाबदूका वक्त्री, वंशवीर्यादि गुणतो वर्णयित्रीत्यर्थः, भव, 'वावदूकोऽतिवक्तरि' इत्यमरः। वावदूक इत्यस्य यङलुगन्तात् वदेः 'उलूका