________________ दशमः सर्गः। .. 587 इदानीम् एतद्युवशरीरैरात्मनो बहुत्वात् ततो न भयमिति भावः। इयमुत्प्रेक्षा / सर्वे कामकल्पा इति निष्कर्षः // 61 // जिस शिवजीने पहले कामदेवको अकेला होनेसे मारा था, ये युवक ( राजा लोग) इस ( कामदेव ) के, उस शिव-सम्बन्धी भयका प्रतिकार अर्थात् निवारण करनेवाले शरीरसमूहका विलास है क्या ? [पहले कामदेवको अकेला (असहाय) होनेसे शिवजीने मार दिया उसी शिवजी के भयको निवारण करनेवाले ये युवक राजा उस कामदेवके शरीरके विलास हैं / असहायको एक बलवान् व्यक्ति मार देता है, किन्तु अनेक व्यक्तियोंको वह नहीं मार सकता; अतः अब ये अनेक कामदेव होकर शिवजीसे निर्भय हैं / ये युवक कामदेवके समान सुन्दर हैं ] // 61 // पूर्णेन्दुबिम्बाननुमासभिन्नानस्थापयत् कापि निधाय वेधाः / तैरेव शिल्पी निरमादमीषां मुखानि लावण्यमयानि मन्ये // 62 // पूर्णेति / शिल्पी निर्माणकुशली, वेधाः अनुमासं मासि मासि, भिन्नान् नाना. भूतान् , पूर्णेन्दुबिम्बान् संसारस्यानादित्वादसङ्खयानिति भावः' क्वापि निधाय निक्षिप्य, आच्छायेति यावत् , आस्थापयत् स्थापितवान् , चिरमरक्षदित्यर्थः। अथ तैः पूर्णेन्दुबिम्बैरेव, अमीषां यूनां, लावण्यमयानि मुखानि निरमात् निर्मितवानिति मन्ये / उत्प्रेक्षा // 62 // ____ कारीगर ब्रह्माने प्रत्येक मासमें भिन्न 2 पूर्णचन्द्रबिम्बको कहीं ( गुप्त स्थान में ) छिपाकर रख दिया, उन्हीं ( पूर्व स्थापित पूर्णचन्द्रबिम्बों ) से सौन्दर्ययुक्त इन मुखोंको बनाया है, ऐसा मैं मानता हूँ [अन्य भी कोई कारीगर बहुत उत्तमोत्तम पदार्थोको किसी गुप्त स्थान में बनाकर रख देता है और बादमें उनके द्वारा किसी कल्पनातीत सुन्दर पदार्थकी रचना करता है / इन युवकों के मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान सुन्दर हैं ] // 62 // मुधाऽर्पितं मूर्द्धसु रत्नमेतैर्यन्नाम तानि स्वयमेत एव / स्वतः प्रकाशे परमात्मबोधे बोधान्तरं न स्फुरणार्थमर्थ्यम् / / 63 // मुधेति / एतैः नृपैः, मूर्द्धसु रत्नं मुधा अर्पितं शिरोमणिर्वृथा धृतः इत्यर्थः, कुतः ? यत् यस्मात् , एते स्वयमेव तानि रत्नानि, नाम खलु, तथोत्कृष्टा इत्यर्थः / 'रत्नं स्वजातौ श्रेष्ठऽपि' इत्यमरः, किं रत्नधारणेनेति वाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसायेन वैयोक्तिः / तथा हि, स्वतः प्रकाशे, परमात्मबोधे परमात्मविषयके तत्स्वरूपे वा ज्ञाने विषये, स्फुरणार्थं, तज्ज्ञानप्रकाशनार्थं, बोधान्तरम् अनुव्यवसायादिरूपं ज्ञानान्तरं, न अयं नापेक्ष्यम् / दृष्टान्तालङ्कारः // 63 // इन्होने मस्तकों पर व्यर्थ ही रत्न (रत्न जड़े हुए मुकुट) रखा है, क्योंकि ये वे (रत्न) ही हैं / परमात्मज्ञानके स्वतः प्रकाशित हो जाने पर स्फुरण करनेके लिये दूसरा ज्ञान