________________ 582 नैषधमहाकाव्यम् / स्वयंवराडम्बरं स्वयंवरसभायोजनं, मुदा हर्षेण, अवैक्षत, किमुतान्य इति भावः / लचमीसरस्वतीसहितः नारायणः स्वयंवरं द्रष्टुमाजगाम इति निष्कर्षः // 51 // उस समय सरस्वती देवीसे वर्णित कीर्ति तथा गौरववाले ( या कीर्ति प्रशंसावाले ) तथा श्री ( स्वपत्नी, पक्षा०-पीताम्बर युक्त शरीर शोमा ) से बिजलीसे युक्त मेघकी शोभाका अभिनय करनेवाले अर्थात् बिजलीयुक्त मेघके समान शोभावाले आकाशस्थ विष्णु भी स्वयम्बरका वह आयोजन हर्षसे देखने लगे। [उस स्वयंवरको देखने के लिये विष्णु भगवान् भी आकाशमें विराजमान हुए ] // 51 // अष्टौ तदाऽष्टासु हरित्सु दृष्टीः सदो दिक्षुर्निदिदेश देवः / लैङ्गीमदृष्ट्वाऽपि शिरःश्रियं यो दृष्टौ मृषावादितकेतकीकः // 52 // अष्टाविति / तदा तस्मिन् काले, सदा स्वयंवरसभां, दिदृतुः द्रष्टुमिच्छुः, आगत इति शेषः, देवश्चतुर्मुखः, अष्टासु हरिसु दिनु, अष्टौ दृष्टीः निदिदेश प्रेरयामास, अष्टदिगाहृतजनताऽवलोकनार्थः। यो देवः, लैङ्गी ज्योतिर्लिङ्गसम्बन्धिनी, शिरः श्रियं लिङ्गस्योत्तरावधिमित्यर्थः, अदृष्ट्वाऽपि दृष्टौ लिङ्गशिरोदर्शनविषये, मृषा वदतीति मृषावादिनी सा कृता मृषावादिता मृषावादीकृतेत्यर्थः, मृषावादिशब्दात्तत्करोतीति ण्यन्तात् कर्मणि क्तः, पुंवद्भाव-टिलोपाद्यथं णाविष्ठवद्भावोपसङ्ख्यानाटिलोपः, केतकी. येन स कूटसाक्षीकृतकेतकीकुसुम इत्यर्थः 'नवृतश्च' इति कप्समासान्तः / पुरा किल ब्रह्मा ज्योतिर्लिङ्गस्य शिरोदेशमदृष्ट्वाऽप्यद्राक्षमित्यसत्यमुक्त्वा तत्र शिवशिरःपतितं केतकीकुसुमं 'शिवशिरःस्थितं मां ब्रह्मा तत आनीतवान्' इति कूटसाक्षीचकारेति पौराणिकी कथाऽत्रानुसन्धेया। तथा च शिवशिरःपारमिव स्वयंवरागतजनतासागरमष्टाभिदृष्टिभिः पश्यन्नपि नापश्यदिति निष्कर्षः // 52 // ___ उस समय सभाको देखने के इच्छुक देव अर्थात् चतुर्मुख ब्रह्माने ( आठो दिशाओंसे आये हुए लोगोंको देखनेके लिये ) आठो दिशाओंमें दृष्टि डाली, जिस ( ब्रह्मा ) ने ज्योति. लिङ्गके शिरकी शोभा नहीं देखकर भी ( उस लिङ्गके ) देखने में केतकी (नामक पुष्प ) से झूठा कहलवाया था। [जिस प्रकार ब्रह्माने विशालतम ज्योतिलिङ्गके शिरोभाग ( ऊपरी हिस्से ) को विना देखे भी देखा हुआ बतलाया, उसी प्रकार विशालतम स्वयंवरको भी आठ नेत्रोंसे देखते हुए भी पूर्णतः नहीं देख सके ] / पौराणिकी कथा-अपनी-अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए शिवजीकी आज्ञासे उनके ज्योतिर्लिङ्गके पाद तथा शिरके मागको देखने के लिए क्रमशः विष्णु तथा ब्रह्मा क्रमशः पाताललोक तथा स्वर्गमें गये और वहांसे लौटकर विष्णुने "मैंने आपके ज्योतिर्लिङ्गका पाद अर्थात् नीचेका भाग नहीं देखा' ऐसी सच्ची बात कह दी, किन्तु ब्रह्माने 'मैंने आपके ज्योतिलिङ्गका शिर अर्थात् ऊपरी भाग देख लिया है' ऐसी झूठी बात कही और अपने कथनकी सत्यता प्रमाणित करने के लिये 'आपके ज्योतिर्लिङ्गके शिरपर स्थित मुझको ये