________________ दशमः सर्गः। 573 निरीचय दिवसं निन्युः / तस्याः सम्बन्धिभिः स्वप्ने याः सम्भोगकलाः सुरतचेष्टास्ता एव विलासाः विनोदास्तनिशाञ्च निन्युः / एतेन जागरावस्थोक्ता // 35 // ___ उन्होंने ( देव तथा राजाओं ) ने उस नगरमें नागरिकों ( नगरवासी चित्रकारों ) से चित्रित आश्चर्यकारक दमयन्तीके चित्रोंको देखकर दिनको और उस ( दमयन्ती) के स्वप्न में सम्भोगकी कला ( चुम्बनादि ) के विलासोंसे रात्रिको बिताया। [ स्वभावतः कभी नहीं सोनेवाले देवोंके कामभ्रमको ही यहां स्वप्नावस्था माननी चाहिये / दमयन्तीको पानेकी चिन्तामें वहां पहुंचे हुए देवों तथा राजाओंको नींद नहीं आती थी ] // 35 // सा विभ्रमं स्वप्नगतापि तस्यां निशि स्वलाभस्य ददे यदेभ्यः / तदर्थिनां भूमिभुजां वदान्या सती सती पूरयति स्म कामम् // 36 // सेति / सती सा भैमी तस्यां निशि स्वयंवरात्पूर्वरात्रौ स्वप्नगताऽपि अपि सम्भावनायां जागरे तु सम्भावितत्वादिति भावः / एभ्यो देवेभ्यो राजभ्यश्च स्वलाभस्य स्वप्राप्तेर्विभ्रमं भ्रान्तिमलीकसङ्गतिमित्यर्थः / ददे दत्तवतीति यत्तत्तस्मादलीकदानाधेतोर्वदान्या सतीभवन्ती। स्वप्राप्तिदानाद्वदान्यत्वं प्राप्तेमिथ्यात्वात्पतिव्रता च सती. त्यर्थः। अर्थिनां भूमिभुजाच कामं मनोरथं पूरयति स्म। एवं स्वकामुकानेकलोकोत्तरयुव समदायेऽपि सा नलैकजीवितैव सती स्थितेत्यर्थः। पतिव्रतायाः स्वकामुकानां सर्वेषां कामपूरकत्वं विरुद्धं, तस्याः स्वप्नदर्शनस्य अलीकत्वात् तेन तथाविधसर्वकामपूरणेऽपि दोषाभावात् परिहारः॥३६ // उस (स्वयंवर के पूर्व दिनवाली) रात्रिमें स्वप्न में भी देखी गयी उस पतिव्रता दमयन्तीने अपनी प्राप्ति ( दमयन्तीलाभ ) का जो विभ्रम ( विलास, पक्षा०-विशिष्ट भ्रम ) इन ( देवों तथा राजाओं) के लिये दिया, वह अर्थी ( दमयन्तीको चाहने वाले ) राजाओं ( पक्षा०-भूमिपर आये हुए देवताओं ) के काम ( मनोरथ ) को दानशीला होकर पूरा कर दिया। [ पतिव्रता दमयन्तीके लिये विलाससे समस्त राजाओंका काम पूरा करना असम्भव होनेसे विरोध होता है और विशिष्ट भ्रम देने एवं स्वप्नमें दर्शन देनेसे उसका परिहार हो जाता है / अपने ( दमयन्ती ) को कामुक अनेक युवकों के समूहों के रहते भो वा दमयन्ती एकमात्र नलको ही चाहती थी। स्वयंवर-दिनके पूर्ववाली रात्रिमें सब राजाओंने स्वप्नमें दमयन्तीको देखकर उसके साथ विलास करनेका अनुभव किया। दिनमें चिन्तित वस्तु का रात्रिमें स्वप्नमें देखना सर्वानुभवसिद्ध बात है ] // 36 // वैदर्भदूतानुनयोपहूतैः शृङ्गारभङ्गीष्वनुभाववत्सु।। स्वयंवरस्थानजनाश्रयस्तैर्दिन परत्रालमकारि वीरैः॥ 37 // वैदर्भेति / परन दिने परेऽहनि वैदर्भस्य भीमनृपतेर्दूतैरनुनयेन प्रार्थनेनोपहूतैः १.-'वद्भिः' इति-'यद्भिः' इति-'विद्भिः' इति च पाठान्तराणि, तत्रान्त्य एवं साधुः प्रतिभाति /