________________ 572 नैषधमहाकाव्यम्। मालाओं वाले तथा विशाल छत्रों वाले देव और विशाल ( बड़े-बड़े ) छत्रों ( के होने ) से नहीं मुझायी हुई मालाओंवाले राजा (परस्परमें ) भेदको नहीं प्राप्त किये। [ देवोंको स्वभावतः पसीना नहीं होता, नेत्रों के पलक नहीं गिरते तथा उनकी माला नहीं मुझाती, ऐसे वहां उपस्थित इन्द्रादि देवोंमें तथा बहुत-से चामरोंकी हवासे सूखनेके कारण पसीना रहित, अनेक प्रकार के विचित्र-विचित्र प्रत्येक पदार्थोको आश्चर्यचकित होकर एकटक देखनेसे पलकको नहीं गिराते हुए और विशाल छत्रोंको लगानेसे धूपका प्रभाव नहीं पड़नेके कारण नहीं मुझयी हुई मालावाले राजाओंमें कोई भेद नहीं रहा। उक्त कारणों से समानधर्मा हो जानेसे 'ये देव हैं तथा ये मनुष्य हैं। यह कोई नहीं पहचान सका / 'नारायणभट्ट' कृत 'प्रकाश' व्याख्यासम्मत पाठान्तर में भी प्रायः ऐसा ही अर्थ समझना चाहिये // 33 // अन्योऽन्यभाषानवबोधभीतेः संस्कृतिमाभिर्व्यवहारवत्सु / दिग्भ्यः समेतेषु नरेषु वाग्भिः सौवर्गवर्गो न नरैरचिह्नि // 34 // अन्योऽन्येति / दिग्भ्यः समेतेषु समागतेषु नरेषु मनुष्येषु अन्योऽन्येषांभाषाणामनवबोधेन निमित्तेन भीतेः सङ्कोचात् संस्कारेण निवृत्ताः संस्कृत्रिमा, 'डिवतः क्रिः' 'क्त्रेमप च नित्यम्' ताभिर्वाग्भिर्व्यवहारोऽभिवादनव्यापारः तद्वत्सु देवभाषयेक भाषमाणेष्वित्यर्थः / स्वर्गः, भवाः इति सौवर्गाः, देवाः, भावार्थ 'तत्र भवः' इत्यण, 'द्वारादीनाञ्च' इत्यैजागमः आद्यस्वरस्य वृद्धिनिषेधश्च तेषां वर्गः समूहः सौवर्गवर्गो देवसमूहः, नरैः कुण्डिनवासिभिः, नाचिति देवत्वेन नाज्ञायि, चिह्नशब्दात् 'तत्करोति' इति ण्यन्ताल्लुङि णाविष्ठवगावे 'विन्मतो क्' इति मतुपो लुक / भेदे अभेदलक्षणाऽतिशयोक्तिः // 34 // परस्परकी भाषाओंके ( विभिन्न होनेसे ) नहीं समझने के डरसे संस्कृत भाषाओंसे व्यवहार करनेवाले अर्थात् संस्कृत भाषा बोलनेवाले एवं दिशाओंसे आये हुए उन राजाओंमें देव-समूह (इन्द्र आदि चारों देवताओं) को लोगों ने नहीं पहचाना / [ देवलोग स्वभाषा होनेसे सर्वदा संस्कृत ही बोलते थे तथा अनेक देश-देशान्तरोंसे आये राजालोग भी अपने-अपने देशकी भाषाओंको बोलनेसे सब लोग नहीं समझ सकेंगे इस विचारसे संस्कृत ही बोलते थे। अत एव देवों तथा राजाओंकी भाषा में एक संस्कृतका ही व्यवहार उस स्वयंवर में होनेसे वहां की जनताने देवोंको राजा ही समझ लिया। किसीने उन्हें 'ये देव हैं। ऐसा नहीं पहचाना] // 34 // ते तत्र भैम्याश्चरितानि चित्रे चित्राणि पौरैः पुरि लेखितानि / निरीक्ष्य निन्युर्दिवसं निशाञ्च तत्स्वप्नसम्भोगकलाविलासैः // 35 // त इति / ते सर्वे नृपाश्च तत्र तस्यां पुरि कुण्डिने पौरैः चित्रे आलेख्ये लेखितानि चित्राणि नानाविधान्याश्चर्याणि 'आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः / भैम्याश्चरितानि