________________ 54 नैषधमहाकाष्पम् / जगतीपति (राजानक) ने यहां (दमयन्तीके पास, या दमयन्तीके विषयमें ) हुए उस सम्पूर्ण अपने दूरकार्यके सार (या यथार्थता) को बीते हुए क्रमसे ( वहां जिस क्रमसे जैसी-जैसी बात-चीत हुई थी उसी क्रमसे / अथवा-भूतगति-अन्तर्धान होकर वहां जानेके कारण भूत-तुल्यगतिसे बीते हुए सम्पूर्ण अपने दूतकार्यके सारको देवोंके कार्य सिद्ध करने में असफल होनेके कारण) आनन्दरहित होकर तीनों लोकोंके मनुष्योंके समस्त बीते हुए वृत्तान्तोंको साक्षात्कर (प्रत्यक्ष ) करनेवाले इन्द्र ल्यादि देवोंसे शीघ्र कह दिये। [ तीनों लोकोंके लोगों के बातोंको प्रत्यक्ष करने तथा निष्कपट होकर समस्त बात स्पष्ट कह देनेसे इन्द्र आदिको नलपर सन्देह करने या रुष्ट होनेका कोई अवसर ही नहीं आया ] // 159 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं ___श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामलदेवी च यम् | संदृब्धार्णववर्णनस्य नवमस्तस्य व्यरंसीन्महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते स! निसर्गोज्ज्वलः // 160 // श्रीहर्षमिति / सन्हब्धं प्रथितमर्णववर्णनमर्णववर्णनाक्यप्रबन्धो येन तस्ये. त्यर्थः / 'प्रथितं प्रन्थितं हन्धम्' इत्यमरः // 160 // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु' समाख्याने नवमः सर्गः समाप्तः // 9 // __ कवीश्वर-समूहके ... ... ... .."किया, "अर्णववर्ण" नामक ग्रन्थके रचयिता उसके, रचित सुन्दर नलके चरित अर्थात् "नैषध चरित... ... .."यह नवम सर्ग समाप्त हुआ। शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान जाननी चाहिये // 160 // यह “मणिप्रभा” टीकामें "नैषधचरित" का नवम सर्ग समाप्त हुआ // 9 //