________________ नैषधमहाकाव्यम / सेवन्तां दिगम्तविभान्तमश्वित्यर्थः। अत्र कामस्य चण्डालधर्मयोग्यचडालरवेनो प्रेक्षणादुस्प्रेक्षा ब्यक्षकाप्रयोगादम्या। मन्दाक्रान्तावृत्तमुक्तम् // 156 // ___तुम्हारा विषमवाण ( पाँच पाणोंवाला ) कामदेव चण्डाल है, वह स्पर्श तो करता है, किन्तु दिखलायी नहीं देता, तुम्हारे विजय होते रहनेपर वह अना ( अगसे रहित ) विख्यात है, फिर कटी हुई अङ्गुलिवाला होनेकी क्या बात है ? वनभूमिमें वसन्तको मित्र बनाकर भीतर (हृदयके भीतर ) में घुसकर सखी ( दमयन्ती) के प्राणों को हर रहा है, दिशाएँ ) ( ऐसे मित्रवाले ) तुम्हारी कीर्तिका सेवन करें। [ पक्षा०-विषम (विषतुल्य या विषमें बुझे हुए बाणोंवाला त्वत्सम्बन्धी चण्डाल ( भयकर बाणों को ग्रहण करनेवाला) है, बह स्पर्श करता ( छूकर पीड़ित करता ) है, किन्तु दिखलायी नहीं देता। तुम्हारे द्वारा . उसका विजय करते रहनेपर वह अनङ्ग (शरीररहित ) कहलाता है तो कटी हुई अङ्गुलि. वाले ( चण्डालकी अङ्गुलिका कटा हुआ रहना शास्त्रों में वर्णित है) का क्या कहना ? अर्थात् शरीर रहित चण्डालरूप कामदेव जब मुझे इतना पीडित कर रहा है तो सम्पूर्ण शरीरयुक्त केवल एक अङ्गुलिसे रहित चण्डाल कितना अधिक पीड़ित करेगा ? उसका क्या कहना है ? जल अर्थात् द्रव पदार्थों में मदिराको मित्र बनाकर अर्थात् पीकर घरमें धुसकर वह तुम्हारा चण्डाल ( मेरी ) सखी दमयन्तीके प्राणोंको हरण कर (मार ) रहा हैं, दिशाएँ तुम्हारी कीत्ति अर्थात् व्यङ्गयसे अपकीति को धारण करें। यदि तुम दमयन्तीको अनुगृहीत नहीं करोगे तो वह मर जायेगी और तुम्हारी अपकीति सब दिशाओं में फैल जायेगी; मतएव तुम इसे अनुगृहीत कर इसकी प्राणरक्षा करो] // 156 / / अथ भीमभुवैव रहोऽभिहितां नतमौलिरपत्रपया स निजाम् / / अमरैः सह राजसमाजगतिं जगतीपतिरभ्यपगम्य ययौ // 147 // अथेति / अथ भैमीवाक्यश्रवणानन्तरं जगतीपतिनलः भीमभुवैव भैल्यैव रहो रहस्यभिहितां निजामात्मीयाममरैः सह राजसमाजस्य राजसभाया गतिं प्राप्तिमप. त्रपया स्ववरणलज्जया नतमौलिनम्रमुखः सन् अभ्युपगभ्याङ्गीकृत्य ययौ। तोटक. वृत्तम् / "इह तोटकमम्बुधिसैः कथित"मिति लक्षणात् // 157 // इसके बाद ( मैं जिस दूत-कार्यके लिए आया था, वह पूरा नहीं हुमा, अपि तु मुझे अब देवोंका प्रतिपक्षी बनकर स्वयंबर में आना पड़ेगा ऐसी) लज्जासे नतमस्तक राजा ( नल ) एकान्तमें भीमनन्दिनी ( दमयन्ती) के द्वारा ही कहे गये देवोंके साथ राजसमा ( स्वयंवर ) में अपना आना स्वीकार कर चले गये // 157 / / श्वस्तस्याः प्रियमाप्तुमुधुरधियो धाराः सृजन्यारया. सम्रोनम्रकपोलंपालिपुलकैतस्वतीरश्रणः / चत्वारः प्रहराः स्मरातिमिरभूत् सा यद् क्षपा दुःक्षपा तत्तस्यां कृपयाखिलेव विधिना रात्रिलियामा कृता // 158 //