________________ नवमः सर्गः। 545 असंशयमिति / हे चन्द्रवंशस्य वतंसावतंस ! “वष्टि वागुरिरखोपमवाप्योरुप. सर्गयोः" इत्यकारलोपः / स हंसः त्वद्विरहेणाप्तसंशयां प्राप्तप्रायसन्देहां मां त्वयि विषये न शशंसैव असंशयम् / अन्यथा भवादृशे स्वद्विधे “त्यदादिषु" इत्यादिना कञ्प्रत्ययः। “आ सर्वनाम्न" इत्याकारादेशःमद्वधा तोर्नृशंसता घातुकत्वं स्त्रीवध. पातकित्वमिति यावत् / 'नृशंसो घातुकः करः' इत्यमरः / क सम्भविनी सम्भवति न कापि सम्भवितेत्यर्थः / सज्जनस्य दयानिधेस्तव नेहकार्य युक्तमिति भावः॥१४४॥ हे चन्द्रवंशके भूषण ( नल ) उस हंसने ही तुमसे तुम्हारे वियोगसे प्राणसंशयको प्राप्त इस दमयन्तीको प्रायः कहा है, किन्तु आप-जैसे ( कुलीन तथा शूरवीर व्यक्ति ) में ऐसी ( अवर्णनीय ) क्रूरता कहांसे सम्भव है ? अर्थात् कदापि नहीं सम्भव है / [ एक सामान्य व्यक्ति भी किसी सामान्य व्यक्तिको मारनेकी इच्छा नहीं करता तो आप-जैसे शूरवीर तथा कुलीन आदमी स्त्रीवधरूपी कर कार्य करे यह कदापि सम्भव नहीं है; अतः इसमें आपका कोई दोष नहीं है ] // 144 / / जितस्त्वयास्येन विधुः स्मरः श्रिया कृतप्रतिज्ञौ मम तौ वधे कुतः। तवेति कृत्वा यदि तन्जितं मया न मोघसङ्कल्पधराः किलामराः // 14 // जित इति / विधुश्चन्द्रस्त्वया आस्येन जितः / स्मरः श्रिया सौन्दर्येण जितः। कुतः कारणात् तौ विधुस्मरौ मम वधे कृतप्रतिज्ञौ त्वयि जेतरि स्थिते निरपराधां मां किमिति मारयत इत्यर्थः / अथ तवेति त्वदीयेति कृत्वा यदि तत्तहिं मया जितं त्वां विना जीवनाभावात् मरणमेव मे प्रियमित्यर्थः / सेत्स्यति चैतदित्याह-अमरा मोघसङ्कल्पस्य धरन्तीति धराः, “पचाद्यच" न किल / सत्यसङ्कल्पाः खलु देवाः, देवौ च विधुस्मराविति भावः / अत्र नलापकारासमर्थयोर्विधुस्मरयोस्तदीयजनाप. कारकथनात् प्रत्यनीकालङ्कारः / “बलिना प्रतिपक्षस्य प्रतीकारे सुदुष्करे / यस्तदीयतिरस्कारः प्रत्यनीकं तदुच्यते // " इति लक्षणात् // 145 // तुम्हारे मुखने चन्द्रमाको तथा शोभाने कामदेवको जीत लिया है, वे दोनों मेरे बधके लिये क्यों प्रतिज्ञा किये हुए है ? 'यदि मैं तुम्हारी हूं' ऐसा समझकर ( वे चन्द्रमा तथा कामदेव ) मुझे सता रहे हैं तो मैंने जीत लिया, देवतालोग असफल सङ्कल्पको नहीं धारण करते / [ तुम्हारे मुख तथा शोभाने या तुमने उन चन्द्रमा तथा कामदेवके साथ विरोध किया है, परन्तु वे दोनों निरपराध मुझे क्यों सता रहे हैं ? कहो / जिस प्रकार विजित व्यक्ति विजेता व्यक्तिको नहीं सता सकने के कारण उसके आश्रित अन्य व्यक्तियों को सताया करता है, उसी प्रकार यदि तुम्हारे मुख तथा शोभासे विजित क्रमशः चन्द्रमा तथा कामदेव तुम्हें सताने में असमर्थ होनेसे तुम्हारा जानकर मुझे सता रहे हैं तो यह बात मुझे परम हर्ष देनेवाली है, अतः मैंने भी जीत लिया, क्योंकि देवता मनमें कभी असफल या असत्य बात नहीं धारण करते अर्थात् 'सत्यसङ्कल्पधारी देवता भी मुझे तुम्हारा मानते हैं' यह मेरे लिये बड़ी प्रसन्नताका विषय है ] // 145 //