________________ नैषधमहाकाव्यम् / अल्पमूल्य वस्तुको छोड़ कर बहुमूल्य वस्तुको पाना चाहता है, अतः मैं भी तुम्हारी अपेक्षा तुच्छ अपने प्राणों को छोड़कर भी तुम्हें पाना चाहती हूँ / स्वामी (पाठा०-श्रेष्ठ स्वामी) भी अपने स्वामीके लिये प्राणत्याग करनेवाले दासपर कृपाकर उसे अपनाता है, अतएव आप भी मुझे शीघ्र अपनाइये / मेरे लिये ही दमयन्तीने प्राणत्याग किया है। ऐसा लोगोंसे मालूम करके ही दमयन्ती मुझे प्राणाधिक मानती थी, इसी लिए मेरे वास्ते उसने अपना प्राणत्याग कर दिया' ऐसा तुम्हें भी विश्वास होगा, अन्यथा नहीं ] // 149 // महेन्द्रहेतेरपि रक्षणं भयाद्यदर्थिसाधारणमनभृव्रतम् / प्रसूनबाणादपि मामरक्षतः क्षपं तदुच्चेरव कीणिनस्तव // 150 // महेन्द्रेति / महेन्द्रहेतेर्वज्रायुधादपि यद्भयं तस्माद्रक्षणं, "भीत्रार्थानां भयहेतुः'. इति क्रमादुभयत्रापादानत्वात् पञ्चमी। अधिष्वार्थमात्रेषु साधारणमस्त्रभृतां व्रतं प्रसूनमेव बाणो यस्य स कुसुमबाणः कामस्तस्मादपि मां स्त्रियमिति भावः अरक्षतः अत एवावकीर्णिनः क्षतव्रतस्य / 'अवकीर्णी शतव्रतः' इत्यमरः। तव तदुच्चैर्महत् व्रतं तं सर्वाभयदानवतिनस्ते पुष्पभृतः स्युपेक्षणे महत्कष्टमापनमित्यर्थः // 150 // महेन्द्र ( सामान्यतः इन्द्र नहीं, किन्तु बड़े 'इन्द्र' ) के शत्र ( वज्र ) के भयसे ( भी डरे हुए व्यक्तिकी) रक्षा करना' यह सामान्यतः ( 'स्त्री की रक्षा करना' इत्यादि किसी व्यक्ति-विशेषमें पक्षपात छोड़कर ) शनधारियों का व्रत हैं, (किन्तु पुष्पबाण अर्थात् कामदेव पक्षा०-कोमल पुष्पोंके वाण ) से भी मेरी रक्षा नहीं करते हुए तुम्हारा वह ( सर्वसाधारणको रक्षा अर्थात् इन्द्रके बाणोंसे भी डरे हुए की रक्षा करनेका) व्रत अच्छी तरह क्षतव्रत भग्न हो गया। [ जब महेन्द्र के शस्त्र ( वज्र ) से भी डरे हुए व्यक्तिको पक्षपात से रहित होकर रक्षा करना शत्रधारियोंका व्रत है, तब सामान्य फूलके बाणोंसे भी मरी रक्षा नहीं कर सकनेवाले व्रतभ्रष्ट मापका वह व्रत सर्वथा भग्न हो गया। अतएव तुम ऐसा न करके पुष्पवाण (कामदेव ) से मेरी रक्षा करो] // 150 // तवास्मि मां पातुकमप्युपेक्षसे मृषामरं हामरगौरवात् स्मरम् / अवेहि चण्डालमनङ्गमङ्ग ! तं स्वकाण्डकारस्य मधोः सखा हि सः॥ तवेति / तवास्मि स्वदीयाहमस्मि, शरणागतत्राणं विहितमिति भावः / एवं सति मां घातुकं शरणानयस्त्रीहन्तारमपीत्यर्थः / "लषपते" स्यादिना उका, “न लोके"त्यादिना कर्मणि षष्ठीनिषेधात् द्वितीया / अत एव मृषामरमलीकामरं स्मरममरमिति गौरवादुपेक्षसे हा कष्टम् ! किं तु अङ्ग ! भोस्तमनङ्गं चण्डालमवेहि / कुतः, हि यस्मात्सोऽनङ्गः स्वकाण्डकारस्य, स्वेषुकारस्य मधोर्वसन्तस्य पुष्पकरत्वात् स्वस्य पुष्पाशुगत्वाच्चेति भावः / 'काण्डोऽस्त्री दण्डबाण' इत्यमरः / सखा हि इषु. कारस्य पण्डालविशेषत्वात् तत्संसर्गिणोऽपि चण्डाला एवेत्यर्थः // 15 //