________________ मष्टमः सर्गः। 151 अथ वरुणस्य विरहं वर्णपति-य इत्यादि / हे तन्वि! कृशामि! यो देवः सायं घुष्णेन कुमेन समालम्भने अनुलेपने कौतुकिन्याः कुतूहलवत्याः आतपारुण्यात् कुङ्कुमलिप्तवद्भासमानाया इत्यर्थः / दिशः प्रतीच्या भर्ता प्रातः प्राच्या अपि तथा• स्वात्तद्वयावृत्यर्थ स्वयं ग्रहणम् / स वरुणः तदा तस्मिन् काले तुभ्योतः प्रजिघाय प्रहितवान् / "हे स्वडि" इति कुत्वम् / यदा यस्मिन् काले गतःप्रयातः नित्यं पन्यानं गच्छतीति पान्थो निवृत्य नैति नायाति अपुनरावृत्तिलिबान्ननं चित्रास्वात्योः प्रहितवानित्युत्प्रेक्षा / “नन्दन्ति न निवर्तन्ते चित्रास्वात्योर्गता नरः" इति वच. नात् / अत एवात्र कवेः पान्थशब्दप्रयोगः “पथो ण नित्यम्" इति नित्याध्वगमने पथिन् शब्दात् णप्रत्ययपान्थादेशयोविधानात् / अत एव "नित्यग्रहणं प्रत्ययार्थ. विशेषणम्" इति काशिकायाम् / तश्चित्तं त्वय्येव सानन्दं विहरति न निवर्तत इति तात्पर्यम् // 80 // (अब ( श्लो० 80 से 83 तक ) नल वरुणके दूतकार्यको आरम्भ करते हैं-) हे तन्धि ! जो (वरुण ) सायङ्कालमें कुङ्कुमसे शरीर-लेपन करने वाली दिशा ( पश्चिम दिशा) के स्वामी हैं, वे ( वरुण ) भी तुम्हारे लिए मनको तब भेज दिये हैं, जब ( से लेकर अब तक ) गया हुआ वह पथिक अर्थात् वरुण का मन लौट कर नहीं आता है। [स्त्री पतिके साथ सम्भोग करनेकी इच्छासे सायङ्कालमें अपने शरीरमें जिस प्रकार कुङ्कुम आदिका लेप करती है उसी प्रकार अपने पति वरुणके साथ सम्भोग को चाहने वाली पश्चिम दिशा सायकालमें रक्तवर्ण हो जाती है, ऐसी उस पश्चिम दिशाके स्वामी वरुणने अपने मनको तुममें इस समय तक आसक्त कर रखा है कि तुमसे उसका मन अभी तक विमुख नहीं हुआ है। वरुण भी तुम्हें चाह रहे हैं ] / / 80 // तथा न तापाय पयोनिधीनामश्वामुखोत्थः क्षुधितः शिखावान् / निजः पतिः संप्रति वारिपोऽपि यथा हृदिस्थः स्मरतापदुःस्थः // 21 // तथेति / तथा चुधितः बुभुक्षितः / “वसतिधोः" इति निष्ठायामिडागमः / अश्वामुखोत्थः शिखावान वडवाग्निः पयोनिधीनां तापाय न भवति यथासौ स्मरदाहेन दुःखं तिष्ठतीति दुःस्थोऽस्वस्थो निजः पतिवरुणः हृदि तिष्ठतीति हृदिस्थः स्मर्यमाण एव वारीणि पातीति वारिपो वारिरक्षकोऽपि सन् तापाय भवति तथा साक्षात्कुक्षिस्थोऽपि वडवाग्निर्न तापयतीत्यर्थः। ईदृक्तापासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 81 // __कामसन्तापसे अस्वस्थ जल रक्षक भी हृदयस्थ ( स्मरणीय, पक्षा०-बीचमें स्थित ) अपना पति ( वरुण ) समुद्रोंको जैसे सन्तापकारक हो रहा है, वैसा ( हृदयस्थ, पक्षा०बीचमें स्थित एवं जल-रक्षक) वडवामुखसे उत्पन्न भूखा अग्नि अर्थात् क्षुधात वडवाग्नि मी समुद्रोंको सन्तापकारक नहीं होता है / [ वरुण तथा वडवाग्नि-इन दोनों के जल-रक्षकत्व तथा हृदिस्थत्वके समान होने पर भी समुद्रोंको वडवाग्नि वैसा सन्तप्त नहीं करता, जैसा कामसन्तप्त वरुण सन्तप्त करता है / समुद्रों के बीचमें वडवाग्नि रहता है / और जलाधीश होने