Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office
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________________ नवमः सर्गः। 515 प्रकार श्रावण-भाद्रपद मासमें वर्षा होनेसे जल प्रवाहरूपसे वहने लगता है, वैसे ही दमयः न्तीके नेत्रों से अनवरोध अश्रुधारा गिरने लगी। दमयन्ती नलकी बातपर विश्वासकर बहुत रोने लगी] // 84 // स्फुटोत्पलाभ्यामलि दम्पतीव तद्विलोचनाम्यां कुचक्रड़मलाशया : निपत्य बिन्दू हदि कज्जलाविलौ मणीव नीलो तरलौ 'विले सतुः॥ 5 // __ स्फुटेति / अथ कजलेनासनेनाविलौ मलिनौ बिन्दू अश्रुबिन्दू तद्विलोचनाभ्यामेव स्फुटोत्पलाभ्यामलिदम्पतीव भृङ्गमिथुनमिव कुचकुड़मलयोरःशया लौल्येन हृदि बसि निपत्य तरलौ चञ्चलो हारमध्यगौ नीलो मणी इव इन्द्रनीलरत्ने इव / "ईदादीनां प्रगृह्यत्वे मणीवादीनां प्रतिषेधो बतष्य" इत्युभयत्रापि प्रगृह्यत्वनिषेधात् सब दीर्घः / विलेसतुः विरेजतुः / “अत एकहरुमध्येऽनादेशादेलिटी" त्येत्वाभ्यासलोपो॥ विकसित कमलद्वयसे ( अधिक मुगिन्ध पानेकी आशासे उड़कर ) कृष्णवर्ण भ्रमरमिथुन जिस प्रकार कमलकलिका पर बैठने को जाता है उसी प्रकार उस दमन्तीके नेत्रद्वयसे स्तन-कुडमलकी प्राप्तिकी भाशासे, कज्जलसे काले आंसूके बूंद हृदयपर गिरकर चञ्चल एवं नीले रंगके रत्न अर्थात् नीलम मणिके समान शोभने लगे। [दमयन्तीके नेत्र विकसित कमल, स्तन कमलकलिका, कजल कृष्ण अश्रुविन्दुदय भ्रमरदम्पति एवं हृदय पर लटकते हुह नीलमके दो दानों के समान है। [ भ्रमरमिथुन विकसित कमलके रसका पानकर विकसित होनेवाले कमलपर चलाजाता है / अमरमिथुन समान कज्जल कृष्ण अश्रुविन्दुद्य दमयन्तीके हृदयस्थ स्तनपर गिरा]॥ 85 // धुता पतत्पुष्पशिलीमुखाशुगैः शुचेस्तदासीत् सरसी रसस्य सा / रयाय बद्धादरयाश्रधारया सनालनीलोत्पललीललोचना // 86 // धुतेति / पतद्भिः पुष्पशिलीमुखाशुगैः पुष्पवाणैर्विशिखैरन्यत्र पतन्तः पुष्पाणि शिलीमुखा अलयश्च येषां तैराशुगैर्वायुभिः / धुता कम्पिता। 'अलिवाणौ शिलीमुखौ, आशुगौ वायुविशिखौ' इति चामरः / रयाय बद्धादरया रययुक्तया अश्रुधारया निमित्तेन सनाल नीलोत्पलस्य लीलेव लीला ययोस्ते लोचने यस्याः सा भैमी तदा शुचेः रसस्य शृङ्गारस्य सम्बन्धिनि अन्यत्र शुचेीप्मस्य सम्बन्धिनि, कार्यादिति भावः / ग्रीष्मशृङ्गारयोः शुचिरित्यभिधानात् रसस्य जलस्य सरसी सर असीत् / अत्र भैम्याः शृङ्गारसरसीत्वेन ग्रीष्माम्बुसरसीत्वेन च रूपणाद्रपकालङ्कारः। तस्य श्लेषो. पमाभ्यामनाभ्यां सहरः स्पष्टः॥८६॥ गिरते हुए पुष्पबाण ( कामदेव ) के बाणोंसे ( अथवा-पुष्पोंपर गिरते अर्थात् आते हुए भ्रमरों तथा वायुओंसे या भ्रमरयुक्त वायुओंसे, अथवा-हंसादि पक्षियों भ्रमरों तथा 1. "विरेजतुः" इति 'प्रकाश' कौरसम्मतं पाठान्तरम् /

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