________________ नवमः सर्गः। नलं स तत्पक्षरवोलवीक्षिणं स एष पक्षीति भणन्तमभ्यधात् / नयादयनामति मा निराशतामसन् विहातेयमतः परं परम् // 18 // नलमिति / स राजहंसः तस्य हंसस्य पक्षरवेण निमित्तेनोवं वीक्षत इति चीक्षिणं तथा एष स सर्वोपकारी पक्षीति भणन्तमेव नलमभ्यधात् अभिहितवान् / हे अदय ! निर्दय ! एनां दमयन्तीमतिनिराशतां नैराश्यं मा नय प्रापय। कुतः अतः परमियं परं केवलमसून प्राणान् विहाता विहास्यति / जहातेलट / तदेतत्प्राणत्राणकाक्षिणा त्वया नैवमाशाच्छेदः कार्य इत्यर्थः // 128 // ___ उस राजहंसने, उस ( राजहंस ) के पंखों के शब्दसे ऊपर देखनेवाले तथा यह वही पक्षी ( मेरा पूर्व परिचित ए परमोपकारी राजहंस ) है, ऐसा कहते हुए नलसे कहा कि तुम इस ( दमयन्ती) को प्राप्त ( स्वीकृत ) करो-हे निर्दय ! इस ( दमयन्ती) को अत्यन्त निराश मत करो ( क्योंकि यदि तुम इस प्रकार ( श्लो० 122-126 ) अपने नामको प्रकाशित करनेके लिए खेद करोगे तो) इसके बाद यह दमयन्ती केवल प्राणोंको ही छोड़ेगी अर्थात् मर जायेगी ( और इस कारण तुम्हें स्त्रीवधजन्य पाप लगेगा, अतएव अब इसे स्वीकार करनेको दया करो ) ( अथवा..."हे निर्दय ! 'अतिमा इयम् अनिराशताम्' अर्थात् अपनी शोभासे लक्ष्मीको जीतने वाली इस दमयन्तीको निराश मत करो। अथवा............"इसे स्वीकार करो / 'हे अतिम ! इयम् अनिराशताम्' अर्थात् 'अतिक्रान्त ( अत्यधिक ) शोभावाले नल ! इसे निराश मत करो'। तुम अत्यन्त सुन्दर हो और यह भी अत्यन्त सुन्दरी है; अतः योग्यका योग्यके साथ ही समागम होना उचित होनेसे इसे निराश न करो, स्वीकार करो। [अन्यथा तुम्हें पतिरूपमें प्राप्त नहीं करनेसे यह शीघ्र ही मर जायेगी और इसके विरहमें तुम भी अपना प्राण-त्याग कर दोगे; इस प्रकार दोनोंका जीवन व्यर्थमें चला जायेगा, अतः विकल्प छोड़कर अब तुम इसे स्वीकार करने की दिया करो // 128 // सुरेषु पश्यन्निजसापराधतामियत्ययस्यापि यदर्थसिद्धये।। न कूटसाक्षीभवनोचितो भवान सतां हिचेतःशुचितात्मसाक्षिका // 12 // सुरेष्विति / हे नल ! भवान् तदर्थस्य सुरकार्यस्य सिद्धये इयदेतावत् प्रयस्याप्यायस्यापि, यसु प्रयत्न इति धातोः समासे क्त्वो ल्यबादेशः। सुरेषु विषये निजां सापराधतामेव पश्यन् उत्प्रेक्षमाणः सन् कूटसाक्षीभवनस्य कपटसाक्षीभावस्य / अभूततन्द्रावे चिः। उचितो न अनपराधिन्यात्मपराधोत्प्रेक्षित्वमेव कूटसाक्षित्वं तत्ते अनुचितमित्यर्थः। तथा हि-सतां चेतःशुचिता चित्तशुद्धिः आत्मसाक्षिका स्व. प्रमाणिका हि / स्वयं प्रमितेऽथे किं विचारणयेत्यर्थः // 129 // ___ उन ( इन्द्रादि दिक्पालों ) के लिये इतना प्रयास करके भी देवताओं के विषयमें अपने अपराध ( मैंने दमयन्तीके सामने अपना नाम प्रकाशितकर देवताओं के साथ विश्वासघात