________________ नवमः सर्गः। तनोषि मानं मयि चेन्मनागपि त्वयि श्रये तद्वहुमानमानतः / विनम्य पत्रं यदि वतसे कियनमामि ते चाण्ड ! तापदावधि / / 108 तनोषीति / हे चण्डि ! अतिकोपने ! मनागीषदपि मानं मयि रोषमपि तनोषि चेत् / तत्तर्हि स्वयि विषये आनतः सन् बहुमान श्रये सन्मानं कुर्वे, प्रतिकोपाशक्ते. रिति भावः / अतिकोपं चेति गम्यते / किञ्च वक्त्रं कियत् किञ्चिद्विनम्य विनमय्ये. स्यर्थः / अन्तर्भावितो णिजः / वर्तसे तदा ते पदावधि पादपर्यन्तं नमामि / पूर्वोक एवाभिप्रायः // 108 // __ यदि तुम मुझमें थोड़ा भी मान करती हो, तो मैं तुम में नम्र होकर अधिक मान ( पक्षा०-सत्कार ) करता हूँ / ( और ) हे चण्डि ( कोपशीले प्रिये ) ! यदि मुखको (रोषके कारणसे ) कुछ अर्थात् थोड़ा भी झुकाकर रहती हो तो मैं ( अपने मुखको ) तुम्हारे चरणों तक झुकाता हूँ / [ तुम्हारे थोड़े मानको बहुत मानसे तथा थोड़ी मुखकी नम्रताको चरणों तक अपने मुखको नम्रकर क्रमशः तुम्हारे मान तथा क्रोधको दूर करता हूं / अतएव मान तथा क्रोध छोड़कर तुम मेरे ऊपर प्रसन्न होवो ] // 108 // प्रभुत्वभूम्नानुगृहाण वा न वा प्रणाममात्राधिगमेऽपि कः श्रमः। क याचतां कल्पलतासि मां प्रति क दृष्टिदाने तब बद्धमुष्टिता / / 10 / / प्रभुत्वेति / हे भैमि ! प्रभुत्वभूम्ना प्रभुत्वप्रयुक्तगौरवेणानुगृहाण वा न वा, किन्तु प्रणाममात्रस्याधिगमे स्वीकारेऽपि कः श्रमः को भार इत्यर्थः / अथ सोऽपि माभूत दर्शनमात्रेणापि किं नानुगृह्णासीत्याह-क्वेति / याचतामर्थिनां कल्पलतासि, क्व ? स्वं क्वेत्यर्थः / असीतित्वमर्थवाक्यालङ्करणयोर्युष्मदर्थानुवादेऽपीति गणव्याख्यानात्। मां प्रति रष्टिदाने बद्धमुष्टिता लुब्धता क्व? 'स्याबद्धमुष्टिः कृपणे कृपणादिपु चेष्यते' इति विश्वः / विरूपघटनारूपो विषमालङ्कारः // 109 // ( मेरे जीवनका एकमात्र आधार होनेसे मेरे ऊपर तुम्हारा पूर्ण प्रभुत्व है, अतएव उस ) प्रभुत्व की बहुलतासे (मुझे ) अनुगृहीत करो या न करो किन्तु केवल ( मेरे ) प्रणाममात्र के स्वीकार करनेमें कौन प्रयास है ? ( प्रभु प्रजा या दासजन पर अनुग्रह करे या न करें; किन्तु दासके प्रणामको तो स्वीकार करता ही है, अतएव तुम मेरे अपराधको क्षमा करो या न करो; किन्तु मेरे प्रणामको तो अवश्य स्वीकार करो)। याचना करने वालों की कल्पलता हो यह कहां ? ( तथा ) मेरे प्रति दृष्टिमात्र देने अर्थात् एक नजर देखने में भी तुम्हारी बद्धमुष्टिता ( कृपणता, पक्षा०-कुछ नहीं देना पड़े इसके लिए मुट्ठी बांध लेना) कहां ? अर्थात् दोनोमें महान् अन्तर है, अतः तुम केवल कटाक्षमात्रसे भी देखकर मुझे अनुगृहीत करो // 109 // स्मरषुषाधां सहस मृदुः कथं हृदि द्रढीयः कुचसंघृते तव | निपत्य वैसारिणकेतनस्य वा व्रजन्ति बाणा विमुखोत्पतिष्णुताम् / / 110 / /