________________ 530 नैषधमहाकाव्यम् / तुम्हारा आसन कौन-सा है ? अर्थात कोई बहों। (तुम्हारे योग्य आसन मेरा वक्षःस्थल ही है, मेरा सिंहासन या उत्सङ्ग नहीं / उनें तो मैंने भ्रमसे कह दिया था, अतः उसकी क्षमा चाहता हूँ ) // 114 / / अधीतपञ्चाशुगवाणषचने ! स्थिता मदन्तर्बहिरेषि चेदुरः / स्मराशुगेभ्यो हदयं विभेतु न प्रविश्य तत्त्वन्मयसंपुटे मम // 115 / / किचोरःस्थलायवस्थानेषु ममापि कामादभवमित्याह-अधीतेति / अधीता अभ्यस्ता पञ्चाशुगस्य पञ्चेषोर्बाणानां वशना प्रतारणाविद्या यथासा तथोक्ता तस्याः सम्बुद्धिः। प्रायेण मनस्विनां लज्जावशंवदतया मदनवनताच्छील्यादित्थं सम्बोध्यते स्वहृदयप्राणसामर्थ्य सूचनार्य हे भैमि ! त्वं मदन्तर्ममाभ्यंतरे स्थिता अवस्थिता / अथ बहिरुरश्चैषि प्राप्नोषि चेत् तत्तर्हि मम हृदयं (कर्तृ) स्वन्मये त्वदास्मके संपुटे पेटिकायां प्रविश्य स्मराशुगेभ्यः स्मरशरेभ्यो न बिभेतु। त्वया गुप्तस्य मे कुतः कामास्त्रभयमित्यर्थः // 115 // ___हे कामबाणको वञ्चना करनेकी विद्याको पढ़ी हुई दमयन्ती ! मेरे अन्तःकरण अर्थात् हृदय के भीतर में स्थित तुम यदि बाहर ( वक्षःस्थलपर ) आवोगी तो त्वद्रूप सम्पुट ( बक्स आदि ) में प्रवेशकर मेरा हृदय कामदेवके बाणों से नहीं डरेगा। (सर्वदा अन्तःकरणमें स्थित यदि बाहर आकर आलिंगन करोगी तो मुझे कामदेव पीड़ित नहीं करेगा, क्योंकि बाहर-भीतर रूप दो सम्पुटों में प्रवेश करने के कारण कामबाणोंसे मेरा हृदय निर्भय हो जायगा) // 115 // परिष्वजस्वानवकाशवाणता स्मरस्य लग्ने हृदयद्वयेऽस्तु नौ / दृढा मम त्वत्कुचयोः कठोरयोउरस्तटीयं परिचारिकोचिता / / 11 / / परिष्वजस्वेति / हे प्रिये ! परिष्वजस्व मालिका तथा सति लग्ने मिथोघटिते नौ आवयोहृदयद्वये स्मरस्यानवकाशा नीरन्ध्रत्वानिरवकाशा बाणा यस्य तस्य भावस्तत्ता अस्तु / इत्थमालिङ्गानं स्मरशरप्रवेशानवकाशकारकमिति भावः। किन दृढा कठोरा ममेयमुरस्तटी कठोरयोस्त्वस्कुचयोः परिचारिका उचिता युक्ता / समा• नगुणयोः सम्बन्धी युक्त इत्यर्थः / अत्र समालङ्कारः। “सा समालकृतियोगे वस्तुनोरनुरूपयोः" इति लक्षणात् // 116 // ___(तुम मेरा ) आलिङ्गन करो, हम दोनों के हृदयद्वयके मिल (परस्परमें अत्यन्त चिपक) जाने पर कामवाणके प्रवेश करनेका भी अवकाश (खाली स्थान) नहीं रहेगा / दृढ़ (मजबूत या विशाल ) भेरी यह उरस्तटोको तुम्हारे कठिन दोनों स्तनोंकी सेविका होना उचित है। योग्य व्यक्तियों का परस्पर समागम होना उचित ही है / [ परस्परमें अत्यन्त चिपके हुए 'किसी स्थान या शरीर आदिमें तीसरे किसी सूक्ष्म वस्तुके प्रवेश करने की आशङ्का नहीं रहती; अतः तुम मेरा गाढ आलिङ्गन करो, जिससे कामपीडा दूर हो जाय ] // 116 //