________________ नवमः सर्गः। करनेवाला पात्र-विशेष ) वाली कविको नाटिका (उपरूपकभेद गत लघुनाटक-विशेष) नहीं हो क्या ? अर्थात् अवश्य हो; तुम्हारे अङ्गहार अर्थात नृत्यमें नायक अर्थात् मुख्य पात्र प्रीतिको पा रहा है, तथा शिखामणि (नायकपूज्य चूड़ामणि ) द्विजराज (ब्राह्मणादि वर्णत्रयका राजा अर्थात् ब्राह्मण ) विदूषक ( नायकका नर्मसचिव हास्यकारक पात्र विशेष ) है ] // 119 // गिरानुकम्पस्व दयस्व चुम्बनः प्रसीद शुश्रषयितुं मया कुचौ / निशेव चान्द्रस्य करोत्करस्य यन्मम त्वमेकासि नलस्य जीवितम् // 120 / / गिरा इति / गिरा सम्भाषणेनानुकग्पस्व चुम्बनैर्दषस्व दयां कुरु, मया कुची शुश्रषयितुं प्रसीद, अन्यथा कथमहं जीवेयमित्याशयेनाह-यत् यस्मात् चान्द्रस्य करोत्करस्य किरणसमूहस्य निशेव नलस्य मम स्वमेका जीवितमसि चन्द्रस्य दिवापि जीवनसम्भवात् करग्रहणं तस्य निशैकशरणरवादिति द्रष्टव्यम् // 120 // __ वचनसे अनुकम्पा करो अर्थात मुझसे बातें करके मुझे अनुकम्पित करो, चुम्बर्नोसे (चुम्बनोंको देकर ) दया करो, मुझसे स्तनोंकी शुश्रूषा करानेके लिये प्रसन्न होवो, चन्द्रसम्बन्धी किरण-समूहों का रात्रिके समान नलका अर्थात् मेरा एकमात्र तुम्ही जीवन हो। (जिस प्रकार किरण-समूहोंसे युक्त चन्द्रमाका जीवन रात्रि हैं, उसी प्रकार मेरा प्राणाधार एकमात्र तुम्ही हो अत एव सम्भाषण कर चुम्बन देकर तथा स्तन-मर्दन कराकर मुझे अनुगृहीत करो; अन्यथा मैं नहीं जी सकता हूं ] // 120 // मुनियथात्मानमथ प्रबोधवान् प्रकाशयन्तं स्वमसावबुण्यत | अपि प्रपन्नां प्रकृति विलोक्य तामवाप्तसंस्कारतयाऽसृजद्विरः // 12 // मुनिरिति / अथैवं भ्रान्त्यनन्तरमसौ नलो मुनिर्यथा मुनिरिव प्रबोधवानुत्पत्रतत्त्वावबोधः सन्नात्मानं स्वं स्वरूप प्रकाशयन्तं सन्तमबुध्यत, नलरूपता प्रकाशिते. त्यबुद्धेत्यर्थः / अथ प्रपन्नां प्राप्तां तां प्रकृति स्वभावं विलोक्यापि ज्ञात्वापि अवाप्तः उद्बुद्धः संस्कारो निजदूतत्वस्मारकवासना येन तस्य भावस्तत्ता तया गिरो दूत्या. नुगणान्येव वाक्यान्यसृजदवोचदित्यर्थः / यथा मुनिर्योगलब्धात्मतत्वावशेधोऽपि वासनावशात् बाह्यमनुसन्धत्ते तथा नलोऽपि प्रकटितात्मा पुनः संस्कारवशात् दूत्यमेवानुसरन्नुवाचेत्यर्थः // 121 // ___ इसके बाद (गत श्लोकमे अपना नाम प्रकाशित करने के बाद) यह नल मुनिके समान प्रबोधयुक्त हुए अपने स्वरूप ( 'मैं नल हूँ' ऐसा) को प्रकाशित करते हुए समझ ( यह नल ही हैं, ऐसा जान ) कर प्रकृतिस्थ रोदन तथा विलापादिसे रहित उस दमयन्ती ( अथवादूतधर्मसे उबुद्ध अपनी प्रकृति ) को देखकर फिर संस्कारको प्राप्त करने ( 'मैं दूत हूं' अतः अपने दत-कार्यको छोड़ना उचित नहीं हैं, ऐसे संस्कारके उत्पन्न होने ) से वचन बोले