________________ नवमः सर्गः। नष्ट करनेवाला अर्थात् दूसरोंके अभीष्टफलमें प्रतिबन्धक तुम मेरे निष्फल (निरर्थक) प्राणोंसे तृप्त होते हुए पतित हो जावो [दूसरोंकी चेष्टाके फलको नष्ट करनेका व्रत रखनेवाले तुम तद्विरुद्ध मेरे प्राणोंसे तृप्त होते हो-मुझ निरपराधिनी लीका वध करते हो-स व्रत. भङ्गरूपी पापके कारण पतित हो जावो अर्थात् नरक चले जावो या स्वर्ग हो जाबो: व्रतके भङ्ग होनेसे पतित होना उचित ही है / अथवा-दूसरोंके अभीष्ट फलको नष्ट करने में मर्वदा लगे रहने एवं मुझ स्त्रीके प्राणोंसे तृप्त होनेके कारण तुम पतित हो जावो ] // 88 // भृशं वियोगानलतप्यमान ! किं विलीयसे न खमयोमयं यदि। स्मरेषुभिर्भेद्य ! न बामप्यसि बीषिन स्थान्त ! कथं न दीर्यसे ||6| भृशमिति / हे भृशं वियोगानलेन तप्यमान ! दयमान ! हे स्वान्त ! हृदय ! श्वमयोमयं यदि किं न विलीयसे अयोधनस्यापि तापात् विलयन दर्शनाइयोमयमपि नासीति भावः / हे स्मरेषुभिर्भय ! अत एव वमपि नासि वत्रस्य लोहले. पयस्वाभावादिति भावः / किन्तु कथं न दीर्यसे न विदलसि वनादन्यस्य लोहलेण्यस्वादिति भावः / न ब्रवीषीति काकुः। किमिति न ये स्वरस्वरूपमित्यर्थः // 89 // ____ हे विरहाग्निमें सन्तप्त होते हुए ( हृदय ) ? यदि तुम लोहमय हो तो क्यों नहीं दवित होते हो ? ( अग्निमें तपता हुआ लोहा द्रवित हो जाता हैं और तुम द्रवित नहीं होते हो अतः तुम लोहमय नहीं हो अर्थात् लोहसे भी कठिन हो)। [ हे कामाग्निसे भिन्न होने योग्य हृदय ! तुम वज्र भी नहीं हो ( क्योंकि वज्र पुष्पवाणोंसे कभी भेद्य नहीं होता ), क्यों नहीं विदीर्ण होते हो, नहीं बोलते हो अर्थात् तुम्हें बोलना चाहिये कि तुम्हारा स्वरूप क्या है ? ] // 89 // विलम्बसे जीवित ! किं द्रव वृत्त' बलत्यहस्ते हृदयं निकेतनम् / जहासि नाद्यापि मृषा सुखासिकामपूर्वमाजस्यमहो तवेशम्।।१०॥ विलम्बस इति / हे जीवित ! प्रागवायो ! किं विलम्बसे द्रुतं द्रव शीघ्र गछ। कुतः, यतस्ते तव अदो निकेतनमावासगृहं हृदयं ज्वलति प्रज्वलति / अचापीदानीमपि मृषा वृथा सुखासिकां सुखासनं धात्वर्थनिर्देशे ण्वुल वक्तव्यः / न जहासि। दह्यमाने गेहे न वस्तव्यमित्यर्थः। तथा तव जीवनस्य ईदृशमालस्यमपूर्व नूतनमहो। हे जोवित ! क्यों विलम्ब करते हो ? शीघ्र भागी ( क्योंकि ) तुम्हारा घर (निवास स्थानभूत ) यह हृदय ( कामाग्निसे ) जल रहा है; अब भी सुखपूर्वक बैठनेको नहीं छोड़ते हो, तुम्हारा ऐसा यह आलस्य विचित्र है। [ महा आलसी भी व्यक्ति घरमें आग लगते ही सुखपूर्वक नहीं बैठा रहता, किन्तु शीघ्र घरसे भाग जाता है, किन्तु विरहाग्निसे अपने निवासस्थानरूप हृदयके जलते रहनेपर भी तुम नहीं निकलते ( मैं नहीं मर जाती) ऐसा आलस्य करनेसे बड़ा आश्चर्य होता है। कामाग्निपीड़ित प्राणोंको त्यागकर मेरा मर जाना ही अच्छा है ] // 90 //