________________ 522 नैषधमहाकाव्यम्। ममापीति / हे दयाधन ! कृपानिधे ! मम मनस्वदधिमग्नं स्वधारणशरणं वेत्या यदि वेत्सि चेत् "विदो लटो वा" इति सिपस्थलादेशः / ममापि किं नो दयसे ममापि किं नानुकम्पसे, "अधीगर्थदयेशां कर्मणि" इति षष्ठी / अथवा परस्याशयं हृदयं सन्तमसे महामोहान्धकारे / 'विष्वक्सन्तमसम्' इत्यमरः। “अवसमन्धेभ्यस्तमसः" इति समासान्तोऽप्रत्ययः। निमज्जयन् विधिस्तु वाच्य उपालभ्यः, तवा. गसोऽपराधस्य कथा छ / विधिना ज्यामोहितो मामिमां न वेस्थ, न तु निर्दयत्वा. दित्यर्थः॥ 98 // हे दयाधन ( परमदयालो नल ) ! यदि मनको तुम्हारे ( नलके ) चरणों में मग्न जानते हो तो मुझपर दया क्यों नहीं करते ? ( अथवा-मेरे समक्ष क्यों नहीं उदय लेते अर्थात् प्रकट होते ? / अथवा) दूसरेके अभिप्राय ( पक्षा०-अन्तःकरण ) को घने अन्धकार ( पक्षा०-अज्ञान ) में डुबानेवाला भाग्य ही निन्दाके योग्य है, तुम्हारे अपराधकी कौन बात है ? अर्थात् कोई नहीं। [ मेरे दुर्भाग्यके कारण ही तुम्हें स्वयं या इसके द्वारा मेरी यातना नहीं मालूम है, अतः इसमें तुम्हारे अपराधकी कोई बात नहीं है, तुम्हारे पास तक मेरी इस यातनाका समाचार पहुँचने में बाधक भाग्यका ही यह दोष है, अतः वही निन्दनीय है, तुम नहीं] // 98 // कथावशेष तव सा ते गतेत्युपैष्यति श्रोत्रपथं कथं न ते / दयाणुना मां समनुग्रहीष्यसे तदापि तावद्यदि नाथ ! नाधुना // ur कथेति / हे नाथ ! तव कृते स्वदर्थ सा दमयन्ती कथैवावशेषोऽवसानं तं गतेति तव प्रोत्रपथं कथं नोपैष्यति उपैष्यत्येवेत्यर्थः / तदापि तच्छ्रवणकालेऽपि दयाणुना कृपालेशेन मां समनुग्रहीष्यसे तावदनुग्रहीष्यस्येवेत्यर्थः / “ग्रहोऽलिटी"तीटो दीर्घः / अधुना न यदि न चेत् मास्तु पश्चादनुशोचनमपि महाननुग्रह इति भावः // 99 // हे नाथ ! वह ( दमयन्ती) तुम्हारे अर्थात् नलके लिए मर गयी यह (समाचार) कानोंतक क्यों नहीं जाय अर्थात अवश्य जायगा ( 'मेरे लिये दमयन्ती मर गयी इस पातको लोगोंके द्वारा तुम अवश्य सुनोगे / अतः) यदि इस समय मुझे अनुगृहीत नहीं करते हो तो उस समय ( मरनेके बाद ) भी लेशमात्र दयासे अच्छी तरह अनुगृहीत करोंगे, ऐसी मैं सम्भावना करती हूँ / [ मेरे मरनेपर भी कुछ शोक करना भी मेरे लिये तुम्हारा बड़ा अनुग्रह होगा। दूसरा भी कोई स्वामी अशान या दूरस्थ होनेके कारण स्वामिभक्तके ऊपर यदि अनुग्रह नहीं करता, किन्तु उसी स्वामीके निमित्त मरे हुए उस स्वामिभक्त व्यक्तिके लिये अवश्य पश्चात्ताप आदि करके उसे अनुगृहीत करता है ] // 19 // ममादरीदं विदरीतुमान्तरं तदथिकल्पद्रुम ! किञ्चिदथेये / भिदा हदि द्वारमवाप्य मैव मे हतासुभिः प्राणसमः समङ्गमः / / 100 / / ममेति / हे नाथ ! ममेदमान्तरं हृदयं विदरीतुं, “वृतो वा' इति दीर्घः / आवरि