________________ 523 नवमः सर्गः। आदरवत् , तत्तस्माद्विदारणाद्धेतोः हे अर्थिकल्पद्रुम ! किशिदर्थये याचे / किमिति ? प्राणसमः प्राणतुल्यः स्वं हृदि भिदा भेदमेव / "षिनिदादिभ्योऽ"।द्वारमवाप्य मागं लब्ध्वा मे मम हतैस्स्वदप्राप्स्या विफलैरसुभिः सममेव मा गमः मा निर्गच्छ गमेलक। "पुषादी" स्यादिना ब्लेरकादेशः। “न माख्योग" इस्यडागमाभावः। प्राणोत्क्रमणकाले स्वया जन्मान्तरेऽपि त्वत्प्राप्तिकामाया मे हृदयानापयातव्यम् / "यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् / तं तमेवेति कौन्तेय! सदा तद्भावभावितः" इति भगवचनादिति भावः // 10 // मेरा यह अन्तःकरण विदीर्ण होने के लिये तैयार है अर्थात् शीघ्र विदीर्ण होना चाहता हैं, इस कारण हे याचकों के कल्पवृक्ष ( नल ) ! मैं कुछ अर्थात् बहुत छोटी याचना करती हूँ ( याचकोंके कल्पवृक्ष होनेसे तुम मेरी याचनाको भी निष्फल नहीं करोगे यह मुझे विश्वास है / वह याचना यह है कि- ) हृदयमें भेदनरूप द्वारको प्राप्तकर ( तुम्हें नहीं सम्भव है कि तुम्हारे विना हृदयके विदीर्ण होनेपर हतभाग्य मेरे प्राण विदारणरूप द्वारसे निकल जायेंगे, किन्तु तुम भी उसी द्वारसे मत निकल जाना अर्थात् जन्मान्तरमें भी तुम में ही मैं हृदयसे अनुरक्त होकर पुनः प्राप्त करूं, यही मेरी याचना है ] // 10 // इति प्रियाकाकुभिरुन्मिषन भृशं दिगीशदूत्येन हृदि स्थिरीकृतः / नृपं स योगेऽपि वियोगमन्मथः क्षणं तमुभ्रान्तमजीजनत पुनः / 1101 / / इतीति / दिगीशदूत्येन हृदि स्थिरीकृतो निरुद्धः स वियोगमन्मथो विप्रलम्भशृङ्गारः / इतीत्थं प्रियायाः काकुभिः करुणोक्तिभिः उन्मिषन्नुबुद्धः सन् तं नृपं योगे सन्निधाने सत्यपि क्षणं पुनभ्रान्तमुद्घान्तचित्तमुन्मत्तचित्तमिति यावत् / अजी. जनदकार्षीदित्यर्थः। उन्मत्तचित्तविभ्रमः सन्निधिविप्रयोगः सर्वथा विकरोतीति भावः // 101 // दिक्पालों के दूतकर्मसे हृदय में शान्त विरहमन्मथ अर्थात् विप्रलम्भशृङ्गारने साक्षात्काररूप संयोगमें भी इस प्रकार ( 9 / 88-100 ) प्रिया दमयन्तीके दीनवचनों से अत्यन्त बढ़ता हुआ क्षणमात्र उस राजा (नल) को फिर अतिशय उन्मादित (या विह्वल) कर दिया / / 101 / / महेन्द्रदूत्यादि समस्तमात्मनस्ततः स विस्मृत्य मनोरथस्थितैः / क्रियाः प्रियाया ललितः करम्बिता विकल्पन्नित्थमली मालपत् / / 102 / / ___ अथोन्मादानुभावः प्रलापः प्रवृत्त इत्याह-महेन्द्रेति / तत उन्मादोदयानन्तरं। स नल आत्मनो महेन्द्रदूत्यादि समस्तं सर्वकृत्यं विस्मृत्य मनोरथस्थितैः सङ्कल्प विकल्पितविलासैः करम्बिता मिश्रिताः प्रियायाः क्रियाः शृङ्गारचेष्टा विकल्पया लोचयन्नित्थं वक्ष्यमाणप्रकारेणालीकमबुद्धिपूर्वकमालपत् // 102 // इसके बाद वे नल अपने सम्पूर्ण इन्द्रादिदूतकर्मादिको भूलकर मनोरथसे कल्पि।