________________ 520 नैषधमहाकाव्यम् / समान होकर बीत रहा है, अभी बीत नहीं गया है न मालूम कबतक बीतेगा ? यह ध्वनित होता है, कब तक मैं ( दुःख ) सहूंगी, मेरी मृत्यु भी नहीं हैं। ) क्योंकि निश्चय ही कान्त (प्रिय, या मनोरम नल ) अन्तरात्मामें मुझे नहीं छोड़ेगा, और उसे (नलको) मेरा प्रकार ) परम्पराके सर्वदा बने रहनेसे मेरी मृत्यु भी दुर्लभ हैं // 94 // मदुप्रतापव्ययसक्तशीकरः सुग.! स वः केन पपे कृपार्णवः / उदेति कोटिन मुदे मदुत्तमा किमाशु सङ्कल्पकणश्रमेण वः॥१५॥ मदिति / हे सुराः! मदुप्रतापव्यये मदतितीव्रसन्तापशान्ती सक्ता ज्याप्ताः शीकरा यस्य स प्रसिद्धो वो युष्माकं कृपार्णवः केन पपे पीतः। अगस्त्येन प्रसिद्धार्णव इवेति भावः / स्वल्लोभेनैव पीत इत्यत्राह-सङ्कल्पकणश्रमेण अभिध्यानलेशप्रयासेन मत्तोऽप्युत्तमा कोटिः च्यन्तरमित्यर्थः। वो युष्माकं मुदे आशु नोदेति किमु शच्या. दिवदिति भावः / तस्मादनुकम्पनीये जने विपरीताचरणमनुचितमिति तात्पर्यार्थः // हे देवो ! मेरे तीव्र ( नल-विरहजन्य ) सन्तापके नाश करनेमें समर्थ बिन्दुवाला आप लोगोंका कृपासमुद्र किसने पी लिया हैं 'एक जल-समुद्रको तो अगस्त्य मुनिने पी लिया था' यह पुराणादिमें उल्लिखित वचनोंसे ज्ञात है, किन्तु आप लोगों के जिस कृपा समुद्रका एक बूंद भी हमारे सन्तापको दूर करने में समर्थ हैं, उसे किसने पी लिया अर्थात् आप लोग मुझपर कृपा क्यों नहीं करते ? आप लोगों के लेशमात्र सङ्कल्प ( इच्छा ) के परिश्रमसे शीघ्र ही मुझसे उत्तम करोड़ों स्त्रियां आप लोगों के हर्षके लिए नहीं उत्पन्न हो जायेंगी क्या ? [ अर्थात् यदि आप लोगोंके थोड़ी-सी इच्छा मात्र करनेसे मुझसे भी उत्तम करोडों स्त्रियां उत्पन्न होकर आप लोगों को हर्षित कर सकती हैं तो एक तुच्छ मुझे चाहकर आपलोग क्यों पीड़ित कर रहे हैं, अतः कृपाकर मुझे चाहना छोड़ दीजिये ] // 95 // ममव वादिवमदिनः प्रमह्य वर्षा ऋतौ प्रसञ्जिते / कथ न शृण्वन्तु सुषुप्य देवता भवत्वरण्येरुदितं न मे गिरः // 96 // अथ मदीयमार्तघोषं देवा नाकर्णयन्तीत्यत्राह-ममैवेति / वा अथवा अह्नि च दिवा च अहर्दिवमहरहरित्यर्थः / ममैवाश्रदुर्दिनैरवर्षरित्यर्थः। प्रसह्य वलाद्वर्षासु ऋतौ वर्पतो 'स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षा' इत्यमरः / “ऋत्यक" इति प्रकृति भावः / प्रसञ्जिते प्रवर्तिते सति देवताः सुष्टु सुप्त्वा सुषुप्य / “वचिस्वपी" त्यादिना सम्प्रसारणम्। “सुविनिर्दुर्व्यः सुपिसूतिसमा" इति षत्वम् / मे गिरः कथं नु शृण्वन्तु सुपुप्तस्य तदयोगादत एव मे गिरः कथमरण्येरुदितम् / "क्षेपे" इति समासः / "तत्पुरुचे कृति बहुलम्" इति सप्तम्या अलुक / न भवतु। विवेयप्राधान्यादेकवच. नम् / सम्भावनायां लोट / निष्फलं वचनमरण्यरुदितप्रायमित्यर्थः। वर्षासु भगवतो हरेः स्वापादन्यत्रापि देवतात्वसामान्यादारोग्यम्पपदेशः / अत्र तत्कालस्य वर्षास्वेन