Book Title: Naishadh Mahakavyam Purvarddham
Author(s): Hargovinddas Shastri
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 588
________________ नवमः सर्गः। 519 होनेसे नलके साथ मैरा संयोग हो जायेगा और यह कार्य तुम्हारी कृपासे होगा, अतएव दम वैसा ही करो ] // 92 / / न काकुवाक्यैरतिवामम द्विषत्सु याचे पवनन्तु दक्षिणम् | दिशापि मद्भस्म किरत्व यं तया प्रियो यया वैविधिर्वधावधिः // 1 // नेति / द्विषत्सु चन्द्रादिवैरिमध्ये अतिवाममतिवक्रमङ्गजं कामं काकुवाक्यैः कर णोक्तिभिः / न याचे न प्रार्थये, किन्तु दक्षिणं दक्षिणदिग्भवं दाक्षिण्यवन्तं च पवन याचे, किमिति ? अयं पवनो यया दिशा प्रियो नलः सञ्चरते तया दिशा तहिभागेनापि मदस्म किरतु क्षिपतु ।प्रार्थनायां लोट् / ननु दक्षिणोऽपि शत्रुपक्ष्यः कथमुपकरिष्यति तत्राह-वैरविधिर्वैराचरणं वधावधिर्मरणान्तः 'मरणान्तानि वैराणी'ति न्यायादित्यर्थः। शत्रुओंमें ( चन्द्र, चन्दन, काम, मलयानिल आदि बहुत-से शत्रुओंमें ) अत्यन्त वाम अर्थात् प्रतिकूल ( अथवा-स्त्रीका या स्त्री वचनका उल्लङ्घन करनेवाला, अथवा-रति है सुन्दरी जिसकी ऐसा, अथवा-रति ( स्वस्त्री) का सुन्दर पति, अथवा-रति अर्थात् विरही लोगों के अनुरागमें प्रतिकूल ) अङ्गज अर्थात् कामदेव (पक्षा०-पुत्र) से दीन वाक्यों द्वारा मैं याचना नहीं करती हूँ, किन्तु दक्षिण ( अनुकूल, पक्षा०-दाक्षिण्य गुणसे युक्त, या दक्षिण दिशासे आनेवाले ) पवनसे याचना करती हूँ। ( प्रतिकूल आचरण करनेवाले पुत्रसे भी कोई याचना नहीं करता, किन्तु दक्षिण ( दाक्षिण्य गुण युक्त, या अनुकूल ) शत्रुसे भी दीन वचन कह कर याचना कर लेता है, मेरी याचना यह है कि यह दक्षिण पवन मेरे भस्म ( मेरे मरनेके बाद चितामें जलानेसे उत्पन्न भस्म ) को उस दिशामें फेंके अर्थात् उड़ावे, जिस दिशामें प्रिय ( नल ) हैं, ( क्योंकि ) वैरका अन्त मरणतक होता है / [ मरनेके बाद भी किसीसे कोई बैर नहीं रखता, अतः दक्षिण पवन (मलयानिल) के अपना शत्रु होने पर भी मैं उससे दीन वचन कहकर प्रार्थना करती हूँ कि दक्षिण दिशामें स्थित विदर्भ देशसे मेरे मृत शरीरके भस्मको उत्तर दिशा में स्थित निषध देशमें उड़ाते हुए पहुँचा कर नलके साथ सम्बद्ध देशमें मेरे भस्मको पहुंचानेसे मुझे कृतार्थ करे ] / / 93 / / अमूनि गच्छन्ति युगानि न क्षणः कियत् सहिष्ये न हि मृत्यरस्ति मे | स मां न कान्तः स्फुटमन्तस्मिता न तं मनस्तच्च न कायवायवः / / 5 / / अमूनीति / गच्छन्ति विपरिवर्तमानान्यमूनि युगानि न क्षणः एकोऽप्ययं क्षणो युगसहस्रायत इत्यर्थः। कियत् सहिष्ये, मृत्युमरणश्च मे नास्ति हि स कान्तस्तु अन्तः अन्तरात्मनि मां नोज्झिता नोज्झिष्यति, स्फुटं तं कान्तं मनश्च नोसितम् तन्मनश्च कायवायवः प्राणा नोज्झितारः / हन्त का गतिरिति भावः // 94 // ___ ये युग बीत रहे हैं, क्षण ( एक क्षणका समय ) नहीं बीत रहा है ( अथवा-कष्टप्रद ये युग बीत रहे है, हर्षकारक एक क्षण भी नहीं बीत रहा है। क्षणमें एकवचन, युगमें बहु. वचन तथा 'गम्' धातुमें वर्तमानका प्रयोग होनेसे एक क्षणका समय भी अनेकों युगोंके

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