________________ 518 नैषधमहाकाव्यम् / दृशौ ! मृषापातकिनो मनोरथः कथं पृथू वामपि विप्रलेभिरे। प्रियश्रियः प्रेक्षणघाति पातकं स्वमभिः क्षालयतं शतं समाः // 11 // दृशाविति / हे दृशौ ! मृषापातकिनोऽनृतपातकिनो मनोरथ नलदिदृत्तारूपाः पृथु महत्यी विप्रलम्भानहें इत्यर्थः। वां युवामपि कथं विप्रलेभिरे वञ्चयामासुः। साहसिकाः किन्न कुर्युरित्यर्थः / मनोरथा वां विफला इत्यर्थः / किञ्च प्रियश्रियो नलसौन्दर्यस्य प्रेक्षणघाति दर्शनघातकं स्वं स्वकीयं पानकं जन्मान्तरकृतमिति भावः / अश्रभिः शतं समाः वत्सरान् / अत्यन्तसंयोगो द्वितीया / क्षालवतं गुरुपापं गुरुप्रायवित्तापनोद्यमित्यर्थः / अहो मे दर्शनाशापि निरस्तेति भावः // 91 // हे दोनों नेत्र ! असत्य ( सर्वदा संसारको ठगने ) से पातकी ( पतित ) मनोरथोंने विशाल ( बड़े, पक्षा०-श्रेष्ठ ) भी तुम दोनोंको कैसे ठग लिया ? ( अथवा-पातकी मनोरथोंने असत्यसे विशाल भी तुम दोनोंको कैसे ठग लिया ? अथवा-तुम दोनोंके पातकी मनोरथाने......।) 'हम तुम दोनोंको नलका दर्शन करा देंगे' ऐसा विश्वास देकर नलका दर्शन न करानेसे असत्यभाषी मनोरथोंने तुम दोनोंके साथ अन्याय किया। नेत्रों के बड़े तथा मनोरथोंके उनसे छोटे होनेसे बड़े नेत्रोंके छोटे मनोरथोंके द्वारा ठगा जाना अत्यन्त अनुचित है / प्रिय (नल) की शोभाके देखनेका विनाशक अपने पापको आंसुओं (पक्षा०जलों ) से सैकड़ों वर्ष धोवो / [ जिस प्रकार कहीं धब्बा लग जाता है तो उसे पानीसे कई बार धोया जाता है / उसी प्रकार नल शोभाका दर्शन नहीं करनेसे जो पाप हुआ है, सैकड़ों वर्षों तक रोनेसे उसका प्रायश्चित्त करो। नलके दर्शन तक या उसके अभावमें जीवनभर तुम्हें रोना पड़ेगा] // 91 // प्रियं न मृत्युम लभे त्वदीप्सितं तदेव न स्यान्मम यत्त्वमिच्छसि / वियोगमेवच्छ मनः ! प्रियेण मे तव प्रसादान्न भवत्यसा // 12 // प्रियमिति / हे मनः ! तव ईप्सितमाप्तुमिष्टं प्रियं नलभे तदलामे ईप्सितं मृत्यु मरणञ्च न लभे तस्मात् त्वं मम यदिच्छसि तन स्यादित्यन्वयव्यतिरेकदर्शनादिति भावः / अतो मे प्रियेण वियोगमेवेच्छ तव प्रसादादसौ वियोगो मे मम न भवति नलप्राप्त्यभावे मरणमेव मे शरगमित्यर्थः। अत्र संयोगार्थ वियोगप्रार्थनाद्विचित्रा. लङ्कारः / “विचित्रं स्वविरुद्धस्य फलस्याप्त्यर्थमुद्यमः" इति लक्षणात् / / 92 // हे मन ! ( मैं ) तुम्हारे प्रिय ( नल ) को नहीं पाती हूं और तुम्हारे अभिलषित मृत्युको भी नहीं पाती हूँ, तुम जो चाहते हो वही मेरा कार्य नहीं होता है अर्थात् तुम्हारी इच्छाके विपरीत ही मेरा सब कुछ होता है, (अत एव तुम) प्रिय (नल ) से विरह की इच्छा करो, कि तुम्हारी प्रसन्नतासे मेरा वह ( नलके साथ विरह ) भी न होवे [तुम जिस नल या मृत्युको चाहते हो उनमें से एक भी नहीं हो रहा है-सर्वथा उसके विपरीत ही हो रहा है. अतएव तुम यदि नलका विरह चाहोगी तो उसके भी विपरीत