________________ नैषधमहाकाव्यम् कैसे देंगे ? कहो / [ कन्यादानका जल के साथ करनेका शास्त्रीय विधान होनेसे स्वामो वरुणके निषेध करनेपर तुम्हारे पिता तुम्हारा कन्यादान नहीं कर सकेंगे, इस प्रकार तुम नलको नहीं प्राप्त कर सकोगी, अतः वरुणको हो वरण कर लो ] // 82 // इदं महत्तेऽभिहितं हितं मया विहाय मोहं दमयन्ति ! चिन्तय / सुरेषु विध्नै कपरेषु को नरः करस्थमप्यर्थमवाप्तुमोश्वरः // 3 // सम्प्रति हितार्थसंग्रहकारिकामाह-इदमिति / हे दमयन्ति ! मया इदं महद्धितं ते तव तुभ्यं वाभिहितं, मोहं मौढयं विहाय चिन्तय विमृश। तथा हि-सुरेषु विघ्न एवेकः परंप्रधानं येषां तेषु विघातकेषु सत्सु की नरः करस्यमप्यर्थ वस्त्ववाप्तुमोश्वरः शक्तः, न कोऽपीत्यर्थान्तरन्यासः। तस्मादलं दुरन्तेन बलवदिरोधेनेति भावः // 83 // हे दमयन्ति ! मैंने यह (श्लो०७४-८२ ) तुम्हारे लिये बहुत बड़ा हितकारक वचन कहा है, तुम मोह ( नल के मोह ) को छोड़कर विचार करो / देवोंके एकमात्र विध्न के लिये तैयार होनेपर कौन आदमी ( पक्षा -"रलयोरभेदः" नोति के अनुसार कौन नल) हाथमें स्थित वस्तुको पाने के लिये समर्थ होता है ? अर्थात् कोई नहा / [ यदि किसी काममें मनुष्य भी विध्न करता है तो प्रायः वह काम भो पूरा नहीं होता, तो फिर देवों ( एक ही नही,) किन्तु अनेक ( या 4 चार ) देवों के केवल विन्न करने में ही लग जाने पर किसी मनुष्यकी शक्ति नहीं है कि हाथ में आयो हुई भो वस्तुको प्राप्त कर ले / अतएव तुम मेरो हितकारी वचन मानकर तथा नलका मोह छोड़कर इन्द्रादि दिक्पाल में से किसीको वरण करो] // 83 // इमा गिरस्तस्य विचिन्त्य चेतसा तथेति सम्प्रत्ययमासमाद सा। निवारितावपहनारनिझरे नमोनमस्यत्वमलम्भय दृशौ // 4 // इमा इति / सा दमयन्ती इमास्तस्य दूतस्य गिरश्वेतसा विचिन्त्य पर्यालोच्य तथेति सम्प्रत्ययं विश्वासमाससाद / अथ निवारितावग्रहो निष्प्रतिबन्धो नीरनिझरो ययोस्ते दृशौ लोचने नभोनभस्यत्वं श्रावणभाद्रपदत्वम् / 'नभाः श्रावणिकश्च सः, स्युर्नभस्यप्रौष्ठपदभाद्रभाद्रपदाः समाः' इत्यमरः / अलम्भयत् प्रापयदित्युपमातिशयोक्ती। तत्र लभेः प्रान्त्यर्थत्वेऽपि तदुपसर्जनगत्यर्थविवदायां “गतिबुद्धी"त्यादिना अणिकर्तुः कर्मत्वं, गत्युपसर्जनप्राप्त्यर्थत्वे तु कर्मत्वं नास्त्येव / यथा माधे “सितं सितिम्ने"त्यत्र / यदाह वामनः-"लभेत्यर्थत्वागिणच्यणौ कर्तुः कर्मत्वाकर्मत्वे" इति / लभेश्चेति नुमागमः // 8 // ___उस दमयन्तीने उस नलके इन वचनों ( 974-82 ) का मनसे अर्थात् मनोयोगपूर्वक ( अच्छी तरह ) विचार 'वैसा ही है। ऐसा विश्वास कर लिया ( अथवा-मनले वैसा ही है, यह मनसे निश्चय कर लिया) और बादमें वर्षा के प्रतिबन्धसे रहित ( अतएव ) जल-प्रवाहयुक्त नेत्रोंको श्रावण-भाद्रपद मास विना लिया। [सूखाके नहीं पड़ने पर जिस