________________ 512 नेपषमहाकाम्यम् / ("दिवोपवस्वा यदि कल्पशाखिन" भादि चार डोकों 9-74-77 से प्रत्येक देवक विषयमें भेदका प्रतिपादनकर उपाय-प्रयोग-निपुण नल भव दणका प्रतिपादन करते है-) पतिव्रता इन्द्राणी पतिकी अनिच्छा (इन्द्रकी इच्छाको तुम्हें नहीं पूरी करने ) से विनको साधने (दूर करने ) के लिए यदि ( स्वयंवरस्थल में ) नहीं रहेगी तो राज-समूहकी क्रूरता (तुम्हें प्राप्त करने के लिए द्वेष ) से परस्पर वरणार्थियोंवाला वह स्वयंवर ही कहाँ से अर्थात् कैसे होगा ? अर्थात् कदापि नहीं होगा। [ स्वयंवर में इन्द्राणी उपस्थित रहकर विघ्ननिवारण करती है, यह शास्त्र-वचनसे प्रमाणित है। इन्द्राणी पतिव्रता है, अतः सपत्नीरूपमें तुम्हें पानेकी इच्छा करनेवाले इन्द्रको बुरा नहीं मानेगी और तुम्हारे द्वारा इन्द्रकी इच्छा पूरी नहीं होगी तब इन्द्र यह चाहेंगे कि इन्द्राणी स्वयंवरमें जाकर विघ्ननिवारण न करें और पतिव्रता इन्द्राणी भी पतिदेवकी स्वयंवर में इन्द्राणीके सम्मिलित होनेकी इच्छा नहीं होने से नहीं आवेगी तो परस्परमें तुम्हें वरण करने के इच्छुक राजाओंमें सङ्घर्ष होनेसे तुम्हारा स्वयंवर ही निविप्न पूरा नहीं हो सकेगा अतएव तुम्हें इन्द्रका वरणकर लेना चाहिये ] // 78 // निजस्य वृत्तान्तमजानतां मिथी मुखस्य रोषात् परुषाणि जल्पतः / मृध किमच्छकदण्डताण्डवं भुजाभुजि क्षोणिभुजां दिदृक्षसे / / 76 / / निजस्येति / मिथो रोषात् परुपाणि जल्पतो निजस्य मुखस्य वदनस्य वृत्तान्तमजानतां रोषाध्यात् स्वोक्तमप्यविजानतां क्षोणिभुजां सम्बन्धि अच्छत्रका आयुधभङ्गेनापनीतच्छना ये दण्डास्तेषां ताण्डवं तदेव मृधं युद्धं दण्डादण्डीत्यर्थः / तथा तेषामपि भङ्गे भुजाभ्यां भुजाभ्यां प्रवृत्तं युद्धं भुजाभुजि युद्धं च गम्यमानार्थत्वात ध-शब्दप्रयोगः "तत्र तेनेदमिति सरूपे" इति बहुव्रीहाविच कर्मव्यतिहारे इतीच्प्रत्ययः / तिष्टाइगुपाठादव्ययीभावसंज्ञा / दिदृक्षले द्रष्टुमिच्छसि "जश्रुस्मृदृशां सनः" इत्यात्मनेपदम् // 79 // __ आपस में कटु वचन बोलते हुए अपने मुखके वृत्तान्तको ( भी ) क्रोधके कारण नहीं जानते ('किसके प्रति क्या कहना चाहिये' इस वातको नहीं समझते ) हुए ( अथवाक्रोधले आपसमें कटु बोलते हुए अपने मुखके व्यापारको नहीं समझते हुए ) राजाओं की (शस्त्रके छिन्न-भिन्न हो जानेके वाद, छत्ररहित छत्रोंके दण्डों के ताण्डव अर्थात् छत्रों के दण्डों की लड़ाई तथा उसके भी टूट जानेपर बाहुकी ) लड़ाई अर्थात् मल्लयुद्धको देखना चाहती हो क्या ? ( अथवा..."राजाओंका शस्त्राने छत्ररहित दण्डोंके ताण्डवपाला वाहुबुद्ध देखना चाहती हो क्या ?) [ इन्द्रागीके स्वयंवर में विघ्ननिवारणार्थ नहीं आनेपर वहाँ राजारों में भयङ्कर युद्ध होगा] // 79 // अपार्थयन याज्ञिकफूत्कृतिश्रमं अलेषा चेपुषा तु नानलः / अलं नलः कतुमनाग्नसाक्षिको विधि विवाहे तव सारसाक्षि ? कम् / / 8 / /