________________ नवमः सर्गः इतीयमक्षिवावभ्रमे गितैः स्फुटामनिच्छां विवरीतुमुत्सुका / तदुक्तिमात्रश्रवणेच्छयाऽशृणोदिंगीशसन्देशगिरो न गौरवात् / / 1 / / अथ दमयन्तीवृत्तान्तं वक्तुं विततबहुतरदूतवाक्यश्रवणजनितामिन्द्राद्यनुरागशङ्कां तावद्वारयति-इतीति / इयं दमयन्ती अक्षिणी च ध्रुवौ च अचिभ्रुवं द्वन्द्वकवद्भावः / “अचतुर" इत्यादिना समासान्तादिनिपातनात् साधुः। तस्य विभ्रमो विकारः स एव इङ्गितं चेष्टा तैरेव स्फुटां व्यक्तामनिच्छमिन्द्रादिविषयामिति शेषः / तथा विवरीतुं वाचा निषेधुमुत्सुका उद्युका सती / 'इष्टार्थोद्युत उत्सुकः' इत्यमरः / निषेधस्य ज्ञानपूर्वकत्वात् तज्ज्ञानार्थमशृणोदित्यर्थः। किन तदुक्तिमात्रश्रवणेच्छया नलवागमृतपिपासया चेत्यर्थः। दिगीशसन्देशगिरः अशृणोत् / मात्रपदग्यावर्त्यमाह-गौरवादिति / न तु दिगीशादीनां गौरवात्। अस्मिन् सर्गे वंशस्थवृत्तम् / लक्षणन्तूक्तमादिमसर्गे // 1 // ____ उस दमयन्तीने नेत्र तथा भ्रूके विकार (या विलास) की चेष्टाओंसे स्पष्ट अनिच्छा (इन्द्रादिमें या उनके सन्देश सुननेमें प्रेमके अमाव ) को विशेषरूपसे प्रकट करनेके लिये उत्कण्ठित हो केवल नलकी उक्तिमात्रको सुननेकी इच्छासे ही दिक्पालोंके सन्देशवचनोंको सुना, ( उन दिक्पालोंका सन्देश महत्त्वपूर्ण होनेसें सुनना ही चाहिये इत्यादि ) गौरवसे नहीं सुना / ( अथवा-..."इच्छासे ही सुना, दिक्पालोंके सन्देशवचनके गौरवसे नहीं सुना)। [ जिस कार्यको करनेकी इच्छा नहीं रहती, उससे सम्पद बातको भो सुनते समय मनुष्यके नेत्र तथा भ्रू आदि अनिच्छासे सङ्कोचादि द्वारा विकृत हो जाते हैं, उसी प्रकार नलोक्त दिक्पाल-सन्देशोंको सुनते समय दमयन्तीने नेत्र एवं भ्रको विकृतियुक्त कर उनके सन्देश पालनेकी अनिच्छा प्रकटकी, किन्तु अन्तःपुरमें प्रविष्ट इस व्यक्तिको आकृति नलतुल्य सौम्य है अतः इसके वचन भो अतिशय मधुर होनेसे अवश्य सुनने चाहिये, इस भावनासे उसके कहे हुए दिक्पालोंके सन्देशोंको उसने सुना, दिक्पालेका सन्देश होनेसे यह अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा या नहीं सुननेसे हमें पाप होगा इत्यादि गौरवका ध्यानकर अथवादेवोंका सन्देश नहीं सुननेसे वे हमें शापसे दण्डित करेंगे इस भयसे डरकर नहीं सुना। दमयन्तीने दिक्पालोंके सन्देशको सुनते समय ही नेत्र-म-विकारके द्वारा उनमें अपनो अनिच्छा प्रकट की] // 1 // तदर्पितामतवद्विधाय तां दिगोशसन्देशमयों सरस्वतीम् / इदं तमुर्वीतलशीतलद्यति जगाद वैदर्भनरेन्द्रनन्दिनी // तदिति / वैदर्भनरेन्द्रनन्दिनी दमयन्ती तेन नलेनार्पितां प्रयुक्तां दिगीशसन्देश मयों तदूपां सरस्वती वाचमश्रुतवद्विधायाश्रुतामिव करवा / “तेन तुल्यं क्रिया चेद्व तिः"। उर्वीतलशीतलयुति भूलोकचन्द्रं तंनलमिदं वक्ष्यमाणं जगाद गदितवतो // 2 //